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चारित्र कहते हैं । यह चारित्र दशवें गुणस्थान में होता
यथाख्यात चारित्र—सर्वथा विशुद्ध चारित्र को; अर्थात् अतिचार से रहित चारित्र को यथाख्यात चारित्र कहते हैं । इसमें कषाय का उदय नहीं रहता । अतः यह विशुद्ध चारित्र है । अथवा कषाय मुक्त साधु का चारित्र यथाख्यात चारित्र है । इसको वीतराग चारित्र भी कहते हैं । ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक का चारित्र यथाख्यात चारित्र है । यद्यपि ग्यारहवें गुण स्थान में कषाय की (सूक्ष्म लोभ कषाय को) पत्ता रहती है, तथापि वहाँ उसका उदय नहीं है । अतः यह भी यथाख्यात चारित्र (विशुद्धतम चारित्र) कहा जाता है ।
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