SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रघुवरजसप्रकास [ ११ प्रथम लछण दूहौ यतरी मत यतरा वरण, कितरा रूप हुवंत । अन किव, किव पूछे उठे, संख्या तटै सझत ॥ ३८ संख्याविधि दूहौ एक दोय लिख पुरव जुगै, संख्या मत्त सुभाय । दोय हूत दुगणा वधै, संख्या वरण सझाय ॥ ३६ अथ प्रस्तार लछण दही संख्यामें कहिया सकौ, परगट रूप प्रकास । जे लिख सरब दिखाळजे, सौ प्रस्तार सहास ॥ ४० मात्रा प्रस्तार विधि दूही पहला गुरु तळ लघु परठ, सद्रस पंथ अग्र साय |* वंचे जिको मात्रा वरण, ऊरध परठौ आय। ४१ ३८. प्रन-अन्य। ४१. परठ-रख । वंचे-शेष रहना । ऊरध-ऊपर । ___* आदिमें जहां गुरु हो उसके नीचे लघु लिखो (गुरुका चिन्ह ऽ लघुका चिन्ह । है) फिर अपनी दाहिनी ओर ऊपरके चिन्होंकी नकल उतारो । बांई ओर जितने स्थान रिक्त हों (क्रमशः दाहिनी ओरसे बांई अोर तक) गुरुके चिन्ह 5 तब तक रखते चले जानो जब तक कि सर्व लघु न पा जाय । जब सर्व लघ पा जाय तब उसीको उसका अन्तिम भेद समझो। प्रत्येक भेदमें यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यदि वह मात्रिक प्रस्तार है तो, उसके प्रत्येक भेदमें उतने ही चिन्ह आवेंगे जितने मात्राका प्रस्तार होगा। यदि वह वणिक प्रस्तार है तो उसके प्रत्येक भेदमें उतने ही चिन्ह पावेंगे जितने वर्णका प्रस्तार होगा। मात्रिक प्रस्तारके सम कलमें पहला भेद गुरुप्रोंका तथा विषम कल में पहला भेद लघुसे प्रारंभ होता है। वणिक प्रस्तारमें पहला भेद गुरुओंका ही रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003420
Book TitleRaghuvarjasa Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSitaram Lalas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages402
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy