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रघुवरजसप्रकास
अरथ
कंठ सांकड़ा छै । गोतरा पहला दूहारा जीं ताबै पहला दूहारौ प्ररथ लिखां छां । तुक पै'ली प्ररथ स्रोरांमचंद्र किसाक छै । अरथ ग्रन्वयसू लागसी । खार बार धार कैतां - खार समुद्र जीकै कार कार कैतां म्रजादाकौ करणहार दरियावके पाज नहीं, म्रजादकी पाज कोधी इसौ स्रीरामचंद्र फेर सुरार राखस ज्यांकी सिंहारकार कैतां सिंघारकरता इसौ रांम ॥ १
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तुक दूजी प्ररथ - जीं रामचंद्रजीसूं मार छार कार कैतां कांमदेवका बाळणहार सिant प्यार छै, हर फेर रांम नांम तथा जस महातमका सित्र समुद्र छै, इसौ रांम जीने हे प्रांणी तूं भज ।
तुक तीजीरौ रथ - हे प्रांणी, तूं मार कैतां मारियां स जींकौ डार समूह मानवी छै जींका लार लार कैतां पाछै पाछै चार कैतां चालणौ, माटी का मनखांरी लार लार फिरवासूं हार कैतां हठ मती । फिरै भार डार कैतां संसार की कामनाको भार बोझ सौ डार कैतां पटक दे, श्रळगौ मेल ।
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तुक चौथीरौ प्ररथ - हे प्रांणी, तूं तरबौ चाहै छै तौ बार नार तार कैतां बेस्या गणकाकौ तारणहार स्त्री रामचंद्र सार छै, सत्य छै, जीं तूं हरदामें बार बार धारण कर । जीभसूं तौ रांम नांम लै, हर ध्यांन कर, सौ गणका नीच जात जांणसूं सुवौ पढ़ावतां तारी इसौ त्री रामचंद्र दयाळ छै तौ तीनै सुध मन भजतां तारै ही तारै । ईमें संदेह नहीं । यौ पै'ला दूहारौ अरथ छै । कठण जिणसूं लख्यौ छै । बाकीरा तीन ही दूहांरौ अरथ सुगम छै जींसूं नहीं लख्यौ छै । यूं कोई कवि घणकंठ गीत वणावौ सौ देख विचार लीज्यो । हैंतो म्हारी बुध माफक गैलो बताय दीधौ छै । कोई बात सुध असुध होवै तौ वडा कवि तगसीर खिमा कीज्यौ । हैंतो स्त्री रांम जस कीधौ छे सौ सीतारांमजीन सरम छै ।
अथ गीत सुखरौ उरला कंठां ताबै तथा सांकळिया कंठां ताबै अरथरा कारण कारज सहेत स्री हरणूंमांनजीरौ किसना क्रत ।
कीधी - की। सुरार
२९२. कंठ - अनुप्रास । सांकड़ा - पास-पास, संकुचित । किसाक - कैसा ।
( सुरारि ) - राक्षस । राखस - राक्षस । हर प्रौर। पाछै पाछे-पीछे पीछे । सुवौ -
तोता । सुगम - सरल ।
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