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________________ २८८ | रघुवरजसप्रकास अथ गीत यकखरौ (इकखरौ ) लछण सरलोकौ मात्रा चवदै तुक हे मांहै | आंगै सोळ तुक यरण विधा है || काय सावझड़ौ रगणांत कीजै । मोहरा सोळं हीरे रे मेलीजै ॥ गोत कखरौ या विध कवि गावै । रीझावै ॥ राघव राजा जसर चव बीसू मत पद हे लीज वरतारी समझे चोख । सरलोकौ ॥ २३८ अस्थ यकखरा गीत सोळं ही तुकां प्रत चवदै मात्रा आवै । तुकंत रगण श्रावै । सारी ही तुकां प्रतरै यसौ संबोधनरौ एक प्रखर आवै । मोहरे सौ यकखरौ गीत कहावै । यणरा लछणांरौ छंद सरलोकौ छै । वांणिया, जती तथा भोजक बोहोत पढै छै । Jain Education International अथ गीत यकखरौ उदाहरण गीत रे 1 रे 11 कौसिक रिख जग काज रे, जाचिया स्त्री रघुराज सुजविदा दसरथ साज रे, मेल्हिया स्त्री महराज गत पंथ तारक गाह रे, सुज सपत दिन जिग साह हरण खंड की सुबाह रे, मारीच नख दध माह रे 1 रे २३८. हेकरण - एक । मांहै- में । ऊछा है - उमंग में, जोशमें । प्रांण-रखे, ले आये । यरण - इस विध प्रकार, तरह | कायब - काव्य, कविता | रगणांत - वह छंद जिसके अंत में रगरण हो । कीजै - करिये । मेलीजै - रखिए। रोभावे - प्रसन्न करे । चवजें - कहिए । बीस-बीस | मत - मात्रा पद-चरण, तुक । चोखौ-उत्तम । वरतारौ - वह छंद या गद्य परिभाषा जिसमें छंद विशेषके रचनाके नियम व मात्रा वर्ण प्रादि दिए हुए हों । सरलोकौ - राजस्थानीका एक मात्रिक छंद विशेष । यरण - इस । लछरग- लक्षण | बोहोत - बहुत । यसौ - ऐसा । प्रखर- अक्षर | २३६. कौसिक - विश्वामित्र । रिख ऋषि । जिग-यज्ञ । काज लिए जाचिया याचना की । खंड-नाश, ध्वंश । कोध किया । नख डाल दिया । दध - समुद्र । माह में । 11 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003420
Book TitleRaghuvarjasa Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSitaram Lalas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages402
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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