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रघुवरजसप्रकास
[ २३३ चुरस चित ब्रत नीतचारी, निरवहे व्रत हेक नारी , धींग पांण धनंखधारी, निपट संतां नेह ॥ असीचौ-लख जीव एता, जपै तौ प्रभ जीह जेता , भजै जटधर निगम भेता, नंद दसरथ नाम । गरुड़ध्वज रिममांणगाळा, वैर बाहर सीत वाळा , कहां झोक अनूप काळा, रूप भूपां राम ॥ विसू रक्खण सुजस वाता, इंद्र कौसळ आखियातां , देव वंछित दांन दाता, दुझल दीन दयाळ । गाव दस सिर बांण गंजे, प्रगट खळ जन भूप भंजे जनक पण रख चाप भंजे, भले अवध भवाळ । गरब प्रासुर समर गाहे, सधर भुज खित्रवाट साहे , रटे जग जग सीस राहे, गहर कीरत गाथ । तेण सर गिरराज तारे, महा खळ दहकंध मारे , अडर उरबी भर उतारे, नमौ स्त्री रघुनाथ ॥१२३
___ अथ गीत हिरणझप लछण
धुर सोळह दूजी चवद, ती चौवीस तवंत । चौथी पंचम मत चवद, छठ चौवीस छजंत ॥ १२४
१२३. चुरस-श्रेष्ठ। नीतचारी-नीति पर चलने वाला। निरवहे-निभाया। हेक-एक ।
धींग-जबरदस्त । धनंखधारी-धनुषधारी। निपट-बहत । असीचौ-लख-चौरासी लाख । एता-इतने । तौ-तुझको। प्रभ-प्रभु । जीह-जीभ । जेता-जितने । जटधर-शिव । निगम-वेद, वेद-मार्ग । नंद-पुत्र । गरुड़ध्वज-विष्णु श्रीरामचन्द्र । रिम-मांण-गाळाशत्र ओंका गर्व गंजन करने वाला। वाहर-रक्षा। सीत-सीता । झोक-धन्य-धन्य । अनूप-अनोखा । काळा-वीर । विसू (वसु)-पृथ्वी। आखियातां-अद्भत । दुझलवीर । चाप-धनूष । अवध-अयोध्या। भवाळ-राजा। प्रासुर-राक्षस । समर-युद्ध । गाहे-नष्ट किया। खित्रवाट-क्षत्रियत्व । साहे-धारण किया। गाथ-गाथा, कथा । तेण-उस । सर-समुद्र । गिरराज-पर्वत । खळ-असुर, राक्षस । दहकंध-रावरण ।
उरबी-भूमि । भर-भार । १२४. धुर-प्रथम । दूजी-दूसरी। चवद-चौदह । ती-तीसरी। तवंत-कहते हैं। छजंत
शोभा देता है, शोभा देती है।
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