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रघुवरजसप्रकास अथ गीत वरण्या तत्रादि वसंतरमणी नामा गीत लछण
दूहौ आद पाय उगणीस मत, बीजी सोळ वखांण । अंत भगण जिण गीतनं , वसंतरमणि बखांण ॥ ४६
अथ गीत वसंतरमणी नाम सावझडौ उदाहरण
गीत
कर कर आदमें हिक नगण सुभंकर । धुर उगणीस मत्त नहचै धर ॥ बे लघु होय तुकंत. बराबर । सुसबद राम कहै मझ सुंदर ॥ गीत वसंत रमण किव गावत । सोळह पद-प्रत मात सुभावत ॥ पात जको जग सोभा पावत । रच सावझड़ौ राम रिझावत ।। मांझ रदा भासै कौसत-मण । भुज प्राजांन आसुरां भांजण ॥ वण भ्रगु लात उवर विसतीरण । तण दासरथ धनौ जन तारण ॥ साझै पय बंदगी सुरेसर । जस प्रभणे अह सिंभ दुजेसर ॥
५०. हिक-एक । सुभंकर-श्रेष्ठ । धुर-प्रथम, प्रारम्भमें। मत्त-मात्रा, कला। नहचै
निश्चय । सुसबद-यश, कीर्ति । मझ-मध्य, में। किव-कवि । गावत-वर्णन करता है। पद-प्रत-प्रतिपद, चरण । सुभावत-सुन्दर लगती है। जकौ-वह जो। सोभाकीर्ति । पावत-प्राप्त करता है। रिझावत-प्रसन्न करता है। कौसत-मण (कौस्तुभमणि)पुराणानुसार एक रत्न जो समुद्र-मंथनके समय मिला था और जिसको विष्णु अपने वक्षस्थल पर धारण करते हैं। प्रासुर-असुर राक्षस । भांजण-नाश करनेको, नाश करने वाला। तण (तनय)-पुत्र। धनौ-धन्य-धन्य। जन-भक्त । तारण-उद्धार करने वाला । साझे-करते हैं। पय-चरण । बंदगी-सेवा, टहल । सुरेसर-इन्द्र । प्रभणैवर्णन करते हैं। प्रह-शेषनाग । सिंभ-शंभु, महादेव । दुजेसर-द्विजेश्वर, महर्षि ।
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