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________________ १६६ ] रघुवरजसप्रकास अथ गीत छंद वरणण दूहा ही मत कर भज भज हरी, गांडू मत धींग सदा करणौ धणी, सुणिया नह तजता स्रवण, मीरां स्त्री अंग में मिळी, मनां रळी घर मांन ॥ २ पेट हेक कज रे संभर दिन ५. संतांतणी भजतानै सोरठौ पात, मेट सोच संसौ म कर । रात, नांम विसंभर नारियण ॥ ३ १. गांडू - मूर्ख, कायर । गौंधाय - मनके बुरे भाव प्रकट कर, बदबू देना । संतांतणी - संतोंकी । सिहाय - सहायता । स्रवण ( श्रवण ) - कान । रळी-प्रानंद । २. ३. हेक - एक । कज लिए। पात (पात्र ) - कवि | सन्देह | म मत । संभर-स्मरण कर | नारायण । Jain Education International गींधाय । सिहाय ॥ १ भगवन | अथ गीत लछरण गीत ओटा घाटरा बांका नै त्रिबंक । गीत अनोखा गोखरा सुधा बसणं ॥ भूप रचेता भींतड़ां ईसर नीमंधी व । गाई ति गीतड़ां, अधक व अहराव ॥ ४ सोरठौ कसै पथर कमठाण, एक ठौड़ परठै इळा | मुख मुख नीम मंडांगण, तिणसं न डगै गीतड़ा ॥ ५ धींग- समर्थ | सोच-चिंता । संसौ (संशय) - शक, विसंभर- विश्वम्भर, ईश्वर । नारियण 1 ४. प्रोटपा-प्रद्भुत, विचित्र । घाट-रचना | बांका-वंक । श्रनं- श्रर । कठिन | रचेता - रचने वाला, बनाने वाला । भौंतड़ा-भवन । नीमंधी-रची, बनाई । श्राव- श्रायु, उम्र गीतड़ां - काव्यों, छंदों । अथक - अधिक । श्राव - श्रायु । अहराव - शेषनाग | कसै-कसे जाते हैं । बंधनसे दृढ़ करनेकी क्रिया । बड़ा कार्य । परठ - रचते हैं, बनाते हैं । इळा - पृथ्वी | मंडांण - रचना | त्रिबंक- टेढ़ा, ईसर - ईश्वर । गाई-वर्णनकी । तिणसूं - उससे । कमठाण - मकान आदि बनानेका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003420
Book TitleRaghuvarjasa Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSitaram Lalas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages402
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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