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रघुवरजसप्रकास द्रौपदीकी लाज ब्रजराज जौ न राखै तौ , गुलांम दूसासन तौ कलाम छीन लेतोई ॥ १८२
छंद पुनः कवित्त गंगके सुथांन नख करत प्रकास भांन , रहत सदीव उर मधि पंचमाथके । पापहारी प्रगट अहल्याके उधारी सिर , मंडन सिखारी बनचा रिनके साथके ॥ कोमळ बिमळ कोकनदसे अरुन जे , तलासे जुत कुंकम सुगंध रमा हाथके । अकरम नास मेरे हिये बसिबौ करौ , वे धरमनिवास ऐसे पद रघुनाथके ॥ १८३
दही
सोळह सोळह अखिर पर, है विसरांम हमेस । अंत लघु घण अखिरी, वरणव छंद विसेस ॥ १८४
छंद घणाखिरी ब्रज भाखा कवित्त केसव कमळ नैन संत सुख देन संभू , भूमि पार भजतै अनेक भांत टार भय । निपट अनाथनके नाथ नरस्यंघ नाम , नरक निवारन नरेस्वर निपुन नय ॥
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१८२. कलांम-वाक्य, वचन । १८३. सदीव-सदैव । मधि-मध्यमें । पंचमाथ-महादेव, हनुमान । पापहारी-पापको
मिटाने वाला। उधारी-उद्धार करने वाला। कोकनद-लाल कमल । अरुन-लाल । १८४. अखिर-अक्षर । विसरांम-विश्राम । घण अखिरी-घनाक्षरी नामक कवित्त ।
घणाखिरी-घनाक्षरी। १८५. भांत- भांति, प्रकार । नरस्यंघ-नृसिंहावतार । निपुन-निपुण, चतुर, दक्ष । नय
नीति ।
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