________________
रघुवरजसप्रकास
[ १६३ स्वारथके काज जळ घांम सीत सहै , नित रहत बिलंबी के अनुरूप बांममें । एरे मन मेरे तेरे हितकी कहत है. मैं , तजि रे अन्हेरे काम देरे द्रग रांममें ॥ १८०
छंद पुनः कवित्त मृत याकौ मूळ च्यार भूतते सथूळ कं त , गं थ दुख सहिके अभूत पूत जायेकौ । हाडनकी माळा मांस छाळाते लपेटी भरी , मळके मसाला ताळा पवन लगाये कौ ॥ बिटचार आखर बिराज्यौ ऐसे पिंजरामें , अंत उडि जेहैं पंछी बेद भेद गाय को । पर उपगार केबौ देबौ कछु दांन , सीताबर भजि लेबौ फळ पैबौ देह पाय कौ ॥ १८१
छंद पुनः कवित्त पाय जुवराज मंद अंध दुरजोधन सौ , भयौ मतिमंद रिंद फंद कर केतोई । 'किसन' कहत सिर धं त बिदुर संत , मुखं भयौ बंध द्रोन भीखम सहे तौई ।। पांचं पूत पंडके पटकि बैठे हिम्मतकौ ,
चूकि गौ छभाकौ भवतव्य बस चेतोई । १८०. घांम-गर्मी। सीत-सर्दी। बिलंबी-संलग्न, अनुरूप, अनुकूल, समान, उपयुक्त ।
बांम-स्त्री। अन्हेरे-अन्य, अनुचित । द्रग-नेत्र, नयन । १८१. मूत-मूत्र । याको-इसका। भूतते-पाकाश, पवन, अग्नि, जल, पृथ्वी आदि ।
सथूळ-स्थूल । कूत-मान कर, समझ कर। प्रभूत-अनोखा। छाळा-चमड़ी।
बिटचार-ग्राम-शकर । १८२. द्रोन-द्रोणाचार्य । भीखम-भीष्मपितामह । पूत-पुत्र । पंड-पांडु। छभा-सभा।
भवतव्य-भवितव्य। चेतोई-ज्ञान. चेतना।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org