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रघुवरजसप्रकास
छंद त्रग्धरा (म.र.भ.न. य. य. य . )
जै राघौ राज राजं अमर नर अहं क्रीत जे जीह जापै ॥ आचारी भौक लागै छिनक मझ करां लंक सादांन आपे ॥ धींगां जाड़ा मरोड़े डर कर उभै, बांण धांनख धारै 1 तौनं जीहा रटतां जनम अघ हरै, दास धू जेम तारै ॥१५६
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दूहौ
भगण रगण दुजबर नगरण, दोय भगण गुरु दोय । अहपत खगपत अखै, छंद नरिंद सकोय ॥ १५७
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{ १५५
छंद नरिंद (भ.र. ४ ल.न.भ.भ.ग.ग अथवा भ.र.न.न.ज.ज.य.) १३,८ धारण मांग पांण सर धनखह रांम बडा ब्रद धर 1 आपण मोख दांन जस जग जिग, आठह-जांम उचारै ॥ सागर रूप सूरपण सरसत च्यार दसा मझ चावौ । गौ दुज पाळ तार निज जन जग गैंवर - तारण गावौ ॥ १५८
चौपई
आठ गुरु बारह लघू होय, दीपै जि अंतै गुरु दोय | सौ कह हंसी छंद सकाज, जंपै नाग सुगौ खगराज साखै
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।। १५६ १५६. जै-जय । अमर देवता । श्रहं (ग्रहि ) - नाग । क्रीत - कीर्ति । जीह-जीभ । जापैजपते हैं । श्राचारी- उदार, दातार । भौक- धन्य धन्य । छिनक - क्षण | मझ-मध्य | करां-हाथोंसे । सा - समान । श्रापे-दे दिया । धींगां-जबरदस्त । जाड़ा-जबाड़ा, जड़ । मरोड़-मरोड़ देता है । उभै- दोनों । धांनंख-धनुष । तौन्- तुझको । जीहा-जीभ । श्रघ-पाप । दास - भक्त । हरे - मिटाता है । ध-भक्त ध्रुव । जेम - जैसे । तारउद्धार करता है ।
१५७. दुजबर-चार लघु मात्राका नाम । श्रहपत - शेषनाग । खगपत - गरुड़ । श्रख - कहता है । नरिंद-नरेंद्र छंद । सकोय-वह ।
१५८. पांण (पाणि) - हाथ । सर - बाण | प्राह-जांम (प्रष्टयाम ) - प्राठों पहर मझ-मध्य । चावौ - प्रसिद्ध, विख्यात
।
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१५६. दीप- शोभा देता है । जो कहता है ।
धनखह धनुष । श्रापण - देनेको । मोख - मोक्ष | सूरपण - शौर्य, वीरता । सरसत-सरसाता है । गैवर- तारण- गजका उद्धार करने वाला । नाग-शेषनाग । खगराज- गरुड़
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