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________________ रघुवरजसप्रकास १५२ ] पुन अन्य च अपभ्रंस भाखा सारदूल विक्रीड़त (म.स.ज.स.त.त.ग.) आस्चर्यं रघुनाथ भूप-महदं त्वनांमंमुच्चारणम् । जन्म संचिदघोरघोर कळ सं नासं तमेकं-छिनम् ॥ ते अंभोरुह अंघ्रि एन सरणं प्राप्तं नामांमीस्वरम् । तेसां विघ्नविलीयमांन तुरितं ध्वांतमिव भास्करम् ॥ १४६ दूहौ अखिर गुणीसह अवर लवु, ग्यारहमी गुरु होइ । छ नगण गुरु अंतह सु फिर, धवळ कहावै सोर ॥ १४७ छंद धवल (१० ल.ग. ८ ल. अथवा न.न.न.ज.न.न.ल.) कळह मझ गहत जद रांम धनु निज सुकर । हरत रिम कटक घण-माळ उर सझत हर ॥ खुलत रिख नयण सुण पंख पळचर खरर । डगमगत यर घुसत भाज परबत डरर ॥ १४८ १४६. महदं-उत्सवदायक । त्वन्नाम-तेरा नाम। संचिदघोरघोर (संचित--अघोर+घोर) संग्रह किये हुए महान भयंकर । कळुसं-पाप । नासं-नाश । तमेकं-छिनम्-एक ही क्षण भरमें । ते-तेरा, तेरे । अंभोरुह-कमल । अंघ्रि-चरण । एन (अयन)-घर । प्राप्तं-प्राप्त होकर। तेसां ( तेषाम )-उनका, उनके। विघ्न-बाधा, अड़चन । विलीयमांन-नाश । तुरितं-शीघ्र। ध्वांतमिव-अंधेरेके समान । भास्करम्-सूर्य । १४७. अखिर-अक्षर । गुणीसह-उन्नीस ।। १४८. कळह-युद्ध । मझ (मध्य)-में। गहत-धारण करता है, करते हैं। जद-जब । सुकर-श्रेष्ठ हाथ । हरत-मिटाते हैं, मिटाता है। रिम-शत्र । कटक-सेना। घणमाळ (शिर, मुख+माळ-माला)-रुंडमाला। सझत-धारण करते हैं। हरमहादेव । रिख-नारद ऋषि । पंख-पर, पक्ष। पळचर-ग्रामिषहारी। खररआवाज, ध्वनि विशेष । डगमगत-डाँवाडोल होते हैं, कम्पायमान होते हैं। यर (अरि)-शत्र । घुसत-प्रवेश करते हैं। परबत-पर्वत, पहाड़। डरर-भयसे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003420
Book TitleRaghuvarjasa Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSitaram Lalas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages402
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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