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रघुवरजसप्रकास छंद प्रमिताखिरा (स.ज.स.स.) लिछमीस रांम अण-भंग लखौ । परमेस पाळ जन दीन पखौ ॥ हर पाप ताप दुख-ताप-हरी । तिण पाय रेण रिख नार तरी ॥ १०५ अथ त्रयोदस अखिर छंद वरणण जात अतिजगति
दूही पंच गुरू सगणह भगण, करणसु माया जाण । तोटकमें गुरु एक वध, तारक छंद वखांण ॥१०६
छंद माया (५ ग.स.भ.ग.ग. अथवा म.त.य.स.ग.) राघौ राघौ जंपणरी, ढील म राखै । देवा दैतां मानव नागा, सह दावै ॥ सीतारौ सांमी, जन पाळे । सतधारी थासी आदेही धन गायांजण थारी ॥१०७
___ छंद तारक (स.स.स.स.ग.) घणस्यांम सरूप अनूप घणौ रे । तड़ता पळको पटपीततणौ रे ॥
१०५. अण-भंग-न भागने वाला, अखंड, वीर । लखौ-समझो। परमेस-परमेश्वर । पाळ
रक्षक । जन-भक्त । पखौ-पक्ष, मदद। दुख-ताप-हरी-दुःख और ताप मिटाने वाला । तिण-उस । पाय-चरण । रेण-धूलि । रिख (ऋषि)-गौतम । तरी-उद्धरी, उद्धार
हुआ। १०६. त्रयोदस अखिर छंद-त्रयोदशाक्षरा वृत्ति। करणस-दो दीर्घ मात्रासे । वखांण-वर्णन कर। १०७. राघौ-श्री रामचंद्र । जंपणरी-जपनेकी । ढील-विलंब, देरी। म-मत, नहीं। देवा
देवता। दैता-दैत्यों । मानव-मनुष्य । नागा-नाग, सर्प। सह-सब। दाखै-कहते हैं। सांमी-स्वामी। सतधारी-सत्य या शक्तिको धारण करने वाला। थासी-होगी। प्रा-यह । देही-शरीर । धन-धन्य-धन्य। गायां-गाने पर । जण-जिसको। थारी
तेरी। १०८. तड़ता (तड़िता)-बिजली। पळकौ-चमक । पटपीततणौ-पीताम्बरका।
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