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रघुवरजसप्रकास
__ छंद सुखमा (तय भ.ग.) नागेस भजै राघौ नत ही, साधार धरा भासै सत ही । जे गाव कवि तू धन्य जथा,क्यू और बखांणे आळ कथा ॥ ७४
छंद अंमित गति ( न.ज.न.ग. ) दसरथ राजकँवर है, सुभ कर धांनख सर है। रघुबर सौ किव रट रे, मळ तनचा सब मट रे ॥ ७५ अथ एकादस अखिर छंद वरणण, जात त्रिस्टप
दूही तीन भगण दो गुरु जठै, दोधक छंद स दाख । दोय लघु त्रय सगण पद, सौ सुमुखी अहि साख ।। ७६
छंद दोधक ( भ.भ.भ.ग.ग.) राघव ठाकुर है सिर ज्यांरै, तौ किसड़ी घर ऊणत त्यांरै । की जिण राखस सेव करी सी,वेख भभीखण लंक वरी सी ॥ ७७
छंद समुखी ( ल.ल.स.स.स. अथवा न.ज.ज.ल.ग.) जय जय राघव देतजई, महपत मूरत साचमई। हरण अनेक विघंन हरी, कमळ करं प्रतपाळ करी ॥ ७८
७४. नागेस-शेष नाग । नत-नित्य । साधार-अाधार, सहारा । धरा-पृथ्वी। भास-मालूम
होता है, शोभा देता है । सत-सत्य । जे-अगर । जथा (यथा)-कथा, वृत्तान्त । क्यूं
क्यों । बखांण-वर्णन करता है । प्राळ-व्यर्थ, असत्य । ७५. कर--हाथ । धानख-धनुष । सर-बाण। सौ-वह, उस। किव-कवि । मळ-मैल ।
तनचा-शरीरका । मट-मिटा दे। ७६. जठे-जहां । स-वह । दाख-कह । सौ-वह । अहि-शेषनाग । साख-साक्षी । ७७. ठाकूर-स्वामी। ज्यांरै-जिनके। तौ-तब। किसडी-कैसी। ऊंणत-प्रभाव, कमी।
त्यारै-उनके । राखस-राक्षस । वेख-देख । भभीखण-विभीषण । वरी-प्रदान की। ७८. दैतजई-दैत्योंको (असुरोंको) जीतने वाला । महपत (महिपति)-राजा । मूरत-मूर्ति ।
साचमई-सत्यमयी । करं-हाथ । प्रतपाळ-रक्षा । करी-हाथी अथवा की।
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