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________________ १३२ ] रघुवरजसप्रकास __ छंद सुखमा (तय भ.ग.) नागेस भजै राघौ नत ही, साधार धरा भासै सत ही । जे गाव कवि तू धन्य जथा,क्यू और बखांणे आळ कथा ॥ ७४ छंद अंमित गति ( न.ज.न.ग. ) दसरथ राजकँवर है, सुभ कर धांनख सर है। रघुबर सौ किव रट रे, मळ तनचा सब मट रे ॥ ७५ अथ एकादस अखिर छंद वरणण, जात त्रिस्टप दूही तीन भगण दो गुरु जठै, दोधक छंद स दाख । दोय लघु त्रय सगण पद, सौ सुमुखी अहि साख ।। ७६ छंद दोधक ( भ.भ.भ.ग.ग.) राघव ठाकुर है सिर ज्यांरै, तौ किसड़ी घर ऊणत त्यांरै । की जिण राखस सेव करी सी,वेख भभीखण लंक वरी सी ॥ ७७ छंद समुखी ( ल.ल.स.स.स. अथवा न.ज.ज.ल.ग.) जय जय राघव देतजई, महपत मूरत साचमई। हरण अनेक विघंन हरी, कमळ करं प्रतपाळ करी ॥ ७८ ७४. नागेस-शेष नाग । नत-नित्य । साधार-अाधार, सहारा । धरा-पृथ्वी। भास-मालूम होता है, शोभा देता है । सत-सत्य । जे-अगर । जथा (यथा)-कथा, वृत्तान्त । क्यूं क्यों । बखांण-वर्णन करता है । प्राळ-व्यर्थ, असत्य । ७५. कर--हाथ । धानख-धनुष । सर-बाण। सौ-वह, उस। किव-कवि । मळ-मैल । तनचा-शरीरका । मट-मिटा दे। ७६. जठे-जहां । स-वह । दाख-कह । सौ-वह । अहि-शेषनाग । साख-साक्षी । ७७. ठाकूर-स्वामी। ज्यांरै-जिनके। तौ-तब। किसडी-कैसी। ऊंणत-प्रभाव, कमी। त्यारै-उनके । राखस-राक्षस । वेख-देख । भभीखण-विभीषण । वरी-प्रदान की। ७८. दैतजई-दैत्योंको (असुरोंको) जीतने वाला । महपत (महिपति)-राजा । मूरत-मूर्ति । साचमई-सत्यमयी । करं-हाथ । प्रतपाळ-रक्षा । करी-हाथी अथवा की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003420
Book TitleRaghuvarjasa Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSitaram Lalas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages402
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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