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________________ रघुवरजसप्रकास [ ७५ कका दोय मझ गौरी कहीये, चंपा अंगीक केहि कच हीयै ॥१४० भीना अंगी तीन कके भण, तव बौह ककां नाम काळी तण। भ्रांमी वसत्र सेत तन भासत, वसन लाल खित्रणी सुवासत ॥१४१ पीत दुकूळ वैसणी पहरण, गाह सुद्रणी स्यांम वसन गण । गौरे वरण विप्रणी गाहा, चंपक वरण खित्रणी चाहा ॥१४२ भीनै रंग वैसणी सुभायक, लख सुद्रणी स्यांम रंग लायक । मुगता भूखण विप्री मोहत, सुज खित्रिणि हिम भूखण सोहत ॥१४३ रूपा भरण वैसणी राजत, सुद्रणि पीतळ भूखण साजत । ऊजळ तिलक विप्रणी ओपत, तिलक सुद्रणी लाल अोपत ॥१४४ पीळी तिलक वैसणी परगट, रुच सुद्रणी स्यांम टीलो रट । गाहा तणौ छंद कुळ गायौ, वेद पिता कवि जणां वतायौ ॥१४५ सरस भाख माता सुरसत्ती, उप राजक भ्रहमांण उकती। स्रवण नखित्र मझ जनम तास सुण, कहियौ सरब गाह चौकारण । गाथा नाम छवीस गिणावै, ग्रथ अनेक वडा कवि गावै ॥१४६ १४०. जिस गाथा छंदमें दो 'क' होते हैं उसकी गौरी संज्ञा होती है । जिसमें एक ही 'क' हो उसकी संज्ञा चंपा वर्ण मानी गई है। जिसमें तीन 'क' होते हैं उसका वर्ण (रंग) श्यामता लिए हुए गौर माना गया है और जिसमें 'क' की बाहुल्यता होती है उसकी काली संज्ञा मानी जाती है। १४१. सेत-स्वेत । खित्रणी-क्षत्रिया। १४२. पीत-पीला। दुकूळ-वस्त्र । वैसणी-वैश्य (स्त्री)। सुद्रणी-शुद्रा । वसन-वस्त्र । १४३. विप्री-विप्रा । खित्रिणि-क्षत्रिया। हिम-सोना । १४४. वैसणी-वैश्य (स्त्री)। राजत-शोभा देती है। विप्रणी-ब्राह्मणी। प्रोपत-शोभा देती है । १४५. टीलो-तिलक । १४६. भाख-भाषा । उकती-उक्ति। नखित्र-नक्षत्र । मझ-(मध्य) में । तास-उस । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003420
Book TitleRaghuvarjasa Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSitaram Lalas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages402
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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