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ब्रह्मचर्य-दर्शन
एक पुराना कथानक है। एक छोटा-सा गाँव था । और उसका एक मुखिया था, जिसने सब की सेवा की, हर जगह अपना समय, जीवन और पुरुषार्थं लगाया । उसने गांव के हर बूढ़े, नोजवान, बच्चे और बहिन के कल्याण के लिए अपना जीवन व्यतीत कर दिया। जब जीवन में बुढ़ापा आया, तब घर का मोह त्याग कर, गाँव का पंचायती स्थान था, वहाँ आसन जमा लिया और सोचा, कि जीवन की इन आखिरी घड़ियों में भी गांव की अधिक से अधिक सेवा कर जाऊँ । गाँव के बच्चे आते, तो उन्हें ऐसी शिक्षा देता, कि उनके मन के मैल को धोकर साफ कर देता । नौजवान आते तो उनसे भी समाजोन्नति की बातें करता, उनकी गुत्थियों को सुलझाने की कोशिश करता और उनके निकट सम्पर्क में रहकर उनके विकारों को दूर करने का प्रयत्न करता । और जो बूढ़े आते - जीवन से सर्वथा हताश और निराश, तो उनमें भी नव-जीवन की ज्योति फैलाता । बहिनें आती और उनसे भी जब शिक्षा की बातें करता, तो उनके जीवन में भी एक ज्योति-सी जग जाती ।
सच्चे भाव से सेवा करने वाले को प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा प्राप्त होती ही है । उस बूढ़े मुखिया की इतनी प्रसिद्धि हो गई, और उस पर गाँव के लोगों की ऐसी श्रद्धा जम गई, कि जैसा वह जो कुछ कहता; सारा गाँव वही करता । जैसा वह आचरण करता, सारा गाँव भी उसी का अनुसरण करता ।
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बूढ़े के प्रयत्नों से गाँव की अनेकता में एकता के भाव आने लगे । गाँव में जनaj अनेक थे, किन्तु उसने प्रयत्न कर उन अनेकों को एक रस और एक रूप बना दिया। कुछ ही दिनों में वे अनेक व्यक्ति एवं वर्ग एक हो गए ।
नेता की परिभाषा भी यही है, कि जो विभिन्नता को एक रूप दे सके, जो अलग-अलग राहों पर भटकने वालों को एक राह पर ला सके तथा जिसकी आँखों का जिस ओर इशारा हो, जनता उसी ओर चलने लगे, वही नेता कहलाता है ।
ऋग्वेद में एक पुरुष सूक्त है- जिसमें नेता को महिमा का वर्णन किया गया हैं । ऋग्वेद के भाष्यकार सायण ने तो दूसरे रूप में उसका अर्थ किया है, किन्तु हम उससे मिलता जुलता अर्थ लेते हैं । वहाँ प्रसंग आता है कि
सहल - शीर्षा पुरुषः, सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमि सर्वतः स्पृष्ट्वा त्यतिष्ठद्दशाङ्गलम् ॥
वह महापुरुष है, ईश्वर है, जिसके हजार सिर हैं, हजार नेत्र हैं और हजार पैर हैं, और वह सारे भू-मण्डल को छूकर भी उससे दस अंगुल बाहर है ।
वहाँ, यह ईश्वर के लिए कहा गया है, पर हम विचार करेंगे तो मालूम होगा, कि नेता के विषय में भी यह कथन सत्य के समीप ही है ।
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