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ब्रह्मचर्य - दर्शन
I
विहार हुआ। जब वे मरु भूमि के मैदान से गुजर रहे थे, तब भयानक गरमी के दिन थे । वर्णन आता है, कि कई साधक तो रास्ते में ही आहार -पानी के अभाव में देह त्याग कर गए । इस पर भी भगवान् और उनके शिष्य अनाकुल थे । जो भी रास्ते में मिलता, खड़े होते, उसे सद्धर्म का सन्देश देते और फिर मन्थर गति से आगे की ओर बढ़ जाते । भूख-प्यास और ताप से शरीर गिरने को है, किन्तु आत्मा फिर भी नहीं गिर रही है । मन में किसी भी प्रकार के आकुलता - व्याकुलता के भाव नहीं हैं ।
कुछ सन्त आगे चले गए और कुछ पीछे रह गए। इस तरह सन्त छोटी-छोटी कई टोलियों में बँट गए ।
भगवान् महावीर और गणधर गौतम साथ-साथ थे । गौतम भगवान् के पक्के अन्तेवासी थे, अतः छाया की तरह भगवान् का अनुगमन कर रहे थे । पल भर भी भगवान् से अलग होना उन्हें पसन्द नहीं था । अन्तेवासी का अर्थ होता है -- सदा समीप में रहने वाला ।
तेज गरमी पड़ रही थी। सूर्य उत्तप्त हो उठा था, और जमीन जल रही थी । फिर भी सन्तों की टोलियाँ धीर और मन्द गति से, ईर्ष्या-समिति का ध्यान रखते हुए, चली जा रही थीं । चित्त में खिन्नता नहीं, मन में व्याकुलता नहीं, चेहरे पर परेशानी नहीं, ललाट पर सिकुड़न नहीं । सन्त गण निरन्तर आगे बढ़ते जा रहे थे ।
गाँव दूर है, और मार्ग में ऐसे वृक्ष भी नहीं, कि जिनकी छाया में बैठकर क्षण भर को विश्रान्ति कर सकें ।
तभी दीख पड़ा, कि एक वृद्ध किसान अपने बूढ़े और निर्बल बैलों को लिए जमीन जोत रहा है ।
भगवान् ने किसान की वास्तविक स्थिति का परिचय कराते हुए गौतम से कहा -- यह किसान किस बुरी स्थिति में अपना जीवन चला रहा है ? तुम जाकर इसे बोध दो !'
गौतम ने कहा- 'भंते ! जो आज्ञा ।'
आज का कोई साधु होता तो कह देता--" यह भी कोई बोध देने का समय है ? आसमान से आग बरस रही है, और जमीन आग उगल रही है । आहार- पानी का पता नहीं और आपको बोध देने की सूझी है । अभी हमारे सामने तो एक ही समस्या है, कि कैसे गांव में पहुँचेंगे, कहाँ से लाएँगे और कैसे खाएंगे पीएंगे ?"
किन्तु गौतम जैसे आज्ञाकारी शिष्य ऐसी भाषा बोलने के लिए नहीं थे । वे तत्काल उस किसान के पास पहुँचे । उन्होंने पूछा - "तुम्हारा क्या नाम है ? तुम्हारी क्या स्थिति है ?"
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