SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्रह्मचर्य - दर्शन प्रश्न होता है, कि चेतन अनन्त हैं और समान स्वभाव वाले हैं, तो सब एक रूप में क्यों नहीं हैं ? कोई अत्यन्त क्रोधी है तो कोई क्षमावान् है । कोई अत्यन्त विनम्र है, इतना विनम्र कि अभिमान को पास भी नहीं फटकने देता, तो दूसरा अभिमान के कारण धरती पर पैर ही नहीं धरता । यह सब भिन्नताएँ क्यों दिखाई देती हैं ? अगर आत्मा का रूप एक सरीखा है, तो सब का रूप एक सा क्यों नहीं है ? २४ इस प्रश्न का उत्तर यह है, कि आत्माओं में जो भिन्नता दिखाई देती है, उसका कारण विभाव-परिणति है । अपने मूल और शुद्ध स्वभाव के रूप में सब आत्माओं में समानता है, मगर जड़ के संसर्ग के कारण उनके स्वभाव में जो विकार उत्पन्न हो जाता है, वह विकार नाना प्रकार का है । स्थानांग सूत्र में कहा है- एग श्राया अर्थात् आत्मा एक है। यह कथन संख्या की दृष्टि से नहीं, स्वभाव की दृष्टि से है । अर्थात् जगत् की जो अनन्त अनन्त आत्माएँ हैं, वे सब गुण, और स्वभाव की दृष्टि से चैतन्य स्वरूप हैं, अनन्त शक्तिमय हैं और अपने आप में निर्मल हैं । फिर भी आत्माओं में जो भिन्नता एवं विकार मालूम दे रहे हैं, वे बाहर के हैं, जड़ के संसर्ग से उत्पन्न हुए हैं— कर्म या माया ने उन्हें उत्पन्न किया है । जिस आत्मा में जितने ही ज्यादा विकार हैं, वह उतनी ही ज्यादा दूषित है । और जिसमें जितने कम विकार हैं, वह उतनी ही अधिक पवित्र आत्मा है । एक वस्त्र पूर्ण रूप से स्वच्छ है और एक पूर्ण रूप से गंदा है और एक कुछ गंदा और कुछ साफ है। प्रश्न होता है, कि यह बीच की मिश्रित अवस्था कहाँ से आई ? इस अवस्था-भेद का कारण मैल की न्यूनाधिकता है । जहाँ मैल का पूरी तरह अभाव है, वहाँ पूरी निर्मलता है और जहाँ मैल जितना ज्यादा है, वहाँ उतनी ही अधिक मलिनता है । इसी प्रकार जो आत्मा क्षमा, नम्रता और सरलता के मार्ग पर है, अपनी वासनाओं एवं विकारों पर विजय प्राप्त करती हुई दिखाई देती है, और अपना जीवन सहज भाव की ओर ले जा रही है, समझना चाहिए कि उसमें विभाव का अंश कम है और स्वभाव का अंश अधिक है। जितने जितने अंश में विभाव कम होता जाता है और मलिनता कम होती जाती है, उतने उतने अंशों में आत्मा की पवित्रता धीरे धीरे अभिव्यक्त होती जा रही है । वह स्वभाव की ओर आती जा रही है । जैनधर्म की इस दृष्टि से पता लगता है कि जड़, जड़ है और चेतन, चेतन है । अतः साधक को समझना चाहिए कि मैं चेतन हूँ, जड़ नहीं हूँ। मैं विकार - वासना भी नहीं हूँ। मैं क्रोध, मान, माया एवं लोभ भी नहीं हूँ । नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy