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बह्मचर्य - दर्शन
कि आत्मा विकारमय हो जाएगा। स्वभाव कभी छूटता नहीं है । जिस वस्तु का जो स्वभाव है, वह कदापि उस से पृथक नहीं हो सकता । स्वभाव ही तो वस्तु है, और यदि स्वभाव चला गया, तो वस्तु के नाम पर रह ही क्या जाएगा ? विकार आत्मा में रहते हुए भी आत्मा के स्वभाव नहीं बन पाते ।
वस्त्र की मलिनता और निर्मलता के सम्बन्ध में ही विचार कर के देखें । परस्पर विरुद्ध दो स्वभाव एक वस्तु में नहीं हो सकते। ऐसा हो, तो उस वस्तु को एक नहीं कहा जाएगा। दो स्वभावों के कारण वह वस्तु भी दो माननी पड़ेंगी । पानी स्वभाव से शीत है, तो स्वभाव से उष्ण नहीं हो सकता | आग स्वभाव से गरम है, तो स्वभाव से ठंडी नहीं हो सकती । आशय यह है, कि एक वस्तु के परस्पर विरोधी दो स्वभाव नहीं हो सकते हैं । अतएव आत्मा स्वभाव से विकारमय एवं मलिन ही हो सकता है, या निर्मल निर्विकार ही हो सकता है ।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, आत्मा में दोनों चीजें हैं— मलिनता भी और निर्मलता भी । तब अपने आप यह बात समझ में आ जानी चाहिए, कि वे दोनों आत्मा के स्वभाव हैं, या और कुछ ? दोनों उसमें विद्यमान हैं अवश्य, मगर दोनों उसमें एक रूप से नहीं हैं। दोनों में एक स्वभाव है, और दूसरा विभाव है, आगन्तुक है, एवं औपाधिक है । दोनों में जो विभाव स्वरूप है, वही हट सकता है । स्वभाव नहीं हट सकता है ।
यहाँ पर यह प्रश्न होता है कि आत्मा का स्वभाव क्या है ? और विभाव क्या है ? यह समझने के लिए वस्त्र की मलिनता और निर्मलता पर विचार कर लीजिए । वस्त्र में मलिनता बाहर से आई है, निर्मलता बाहर से नहीं आई है । निर्मलता तो उसका सहज भाव है, स्वभाव है। जिस प्रकार निर्मलता वस्त्र का स्वभाव है और मलिनता उसका विभाव है, औपाधिक भाव है, उसी प्रकार निर्मलता आत्मा का स्वभाव है और विकार तथा वासनाएँ विभाव हैं। जैनदर्शन कहता है, कि आत्मा विभाव के कारण अशुद्ध दशा में है, पर उसे शुद्ध किया जा सकता है ।
जो धर्म वस्तु में किसी कारण से आ गया है - किन्तु जो उसका अपना रूप नहीं है, वही विभाव कहलाता है । और जो वस्तु का मूल एवं असली रूप हो, जो किसी बाह्य निमित्त कारण से उत्पन्न न हुआ हो, वह स्वभाव कहलाता है ।
जैन धर्म ने माना है, कि क्रोध, मान, माया और लोभ अथवा जो भी विकार आत्मा में मालूम हो रहे हैं, वे आत्मा के स्वभाव या निजरूप नहीं हैं । विकार तुम्हारे अन्दर रह रहे हैं, इतने मात्र से तुम बहम में मत पड़ो । वे कितने ही गहरे घुसे हों, फिर भी तुम्हारा अपना रूप नहीं हैं । तुम, तुम हो, विकार, विकार हैं ।
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