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________________ श्रात्म-शोधन १९ उसके कहने से बीमारी चली जाएगी ? एक आदमी के पैर में शीशा चुभ गया । वह किसी के यहाँ गया, और जिसके यहाँ गया, वह कहता है कि शीशा चुभा ही नहीं है, इतने कहने भर से तो काम नहीं चलेगा । ये दो दर्शन, दो किनारों पर खड़े हैं, ये जीवन की महत्वपूर्ण साधना के लिए कोई प्रेरणा नहीं देते, बल्कि साधना के मार्ग में विघ्न उत्पन्न करते हैं । जैनदर्शन इस सम्बन्ध में जन-जीवन के समक्ष एक महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत करता है । वह हमें बतलाता है, कि अपेक्षा विशेष से आत्मा बुरा भी है और अच्छा भी है । आत्मा की ये बुराइयाँ और अच्छाइयाँ अनादि काल से चली आ रही हैं । कब से चली आ रही हैं, यह प्रश्न छोड़ देना चाहिए। आत्मा की जो बुराइयाँ हैं, उनसे लड़ना है, उन्हें दूर करना है और आत्मा को निर्मल बनाना है । यह तभी होगा, जब साधना का मार्ग सही हो । एक वस्त्र मैला हो गया है, गंदा हो गया है । उसके विषय में जो आदमी यह दृष्टिकोण रख लेता है, कि यह तो मैला है और मैला ही रहेगा । यह कभी निर्मल होने वाला नहीं। तो, वह उसे धोने का उपक्रम क्यों करेगा ? हजार प्रयत्न करने पर भी जो वस्त्र साफ हो ही नहीं सकता, उसे धोने से लाभ ही क्या है । जो लोग यह कहते हैं कि -अजी, वस्त्र मैला है ही नहीं । यह तो तुम्हारी आँखों का भ्रम है, कि तुम उसे मंला देखते हो । वस्त्र तो साफ है और कभी मलिन हो ही नहीं सकता ! तब भी कौन उसे धोएगा ? वस्त्र धोने की क्रिया तभी हो सकती है, जब आप उस की मलिनता पर विश्वास रखें और साथ ही उसके साफ होने में भी विश्वास रखें । कहा जा सकता है, कि वस्त्र यदि मैला है, तो निर्मल कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि मैल, मैल की जगह है और वस्त्र, वस्त्र की जगह है । मैल को दूर करने की क्रिया करने से मैल हट जाएगा और वस्त्र साफ हो जाएगा । इस प्रकार वस्त्र को मंला समझकर धोएँगे, तो वह साफ हो सकेगा । वस्त्र को जो मैला ही नहीं समझेगा, अथवा जो उसकी निर्मलता की सम्भावना पर विश्वास नहीं करेगा, वह धोने की क्रिया भी नहीं करेगा और उस हालत में वस्त्र साफ भी नहीं होगा । जैनधर्म आत्मा की अशुद्ध दशा पर भी विश्वास करता है और शुद्ध होने की सम्भावना पर भी विश्वास करता है । वह अशुद्धता और शुद्धता के कारणों का बड़ा ही सुन्दर विश्लेषण करता है । हमारे अनेक सहयोगी धर्म भी उसका साथ देते हैं । इसका मतलब यह है, कि आत्मा मलिनता की स्थिति में है, और स्वीकार करना ही चाहिए कि विकार उसमें रह रहे हैं, किन्तु वे विकार उसका स्वभाव नहीं हैं, जिससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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