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________________ ब्राह्मचर्य-दर्शन पीडयत्येव निःशङ्को मनोभूर्भुवनत्रयम् । प्रतीकारशतेनापि यस्य भङ्ग न भूतले ॥ -ज्ञानार्णव ११,२० यह काम निर्भय होकर तीन भुवन को पीड़ित (दुःखित) करता है, परन्तु मूतल पर सैकड़ों उपाय करने पर भी इसका सहसा भंग (नाश) नहीं हो पाता है। किम्पाकफलसंभोगसन्निभं तद्धि मैथुनम् । प्रापातमात्ररम्यं स्याद्विपाकेऽ त्यन्तभीतिदम् ।। -ज्ञानार्णव ११,१० जिस प्रकार किम्पाकफल (एक प्रकार का विषफल) मात्र बाह्य रूप में देखने, सूंघने और खाने में रमणीय (सुस्वादु) है; किन्तु विपाक होने पर हलाहल (विष) का काम करता है, उसी प्रकार यह मैथुन भी कुछ काल पर्यन्त भले ही रमणीक वा सुखदायक मालूम हो, परन्तु विपाक-समय में (अन्त में) बहुत ही भय का देने वाला है। किं च कामशरवातजर्जरे मनसि स्थितिम् । निमेषमपि बध्नाति न विवेकसुधारसः ।। -ज्ञानार्णव ११,४५ हिताहित का विचार न होने का कारण यह है कि काम के बाणों से जर्जरित हुए मन में निमेषमात्र भी विवेकरूपी अमृत की बूंद नहीं ठहर सकती है। अर्थात् जैसे फूटे घड़े में पानी नहीं ठहरता, उसी प्रकार काम के बाण से छिदे हुए चित्तरूपी घड़े में विवेकरूपी अमृत-जल नहीं ठहरता है । यदि प्राप्तं त्वया मूढ ! नृत्वं जन्मोग्रसंक्रमात् । तदा तत्कुरु येनेयं स्मरज्वाला विलीयते ।। -ज्ञानार्णव ११,४७ हे मूढ़ प्राणी ! जो तूने संसार में भ्रमण करते-करते इस अमूल्य मनुष्यभव को पाया है, तो तू अब वह काम कर, जिससे कि तेरी कामरूपी ज्वाला सदा के लिए नष्ट हो जाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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