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________________ २७ जन-सूक्त प्राणभूतं चरित्रस्य, परब्रह्म ककारणम् । समाचरन् ब्रह्मचर्य, पूजितैरपि पूज्यते ॥ -योग-शास्त्र २,१०४ ब्रह्मचर्य संयम का प्राण है तथा परब्रह्म-मोक्ष का एक मात्र कारण है। ब्रह्मचर्य का परिपालक पूज्यों का भी पूज्य बन जाता है । अर्थात् ब्रह्मचारी सुरों, असुरों एवं नरेन्द्रों का भी पूजनीय हो जाता है। चिरायुषः सुसंस्थाना दृढसंहनना नराः । तेजस्विनो महावीर्या भवेयुब्रह्मचर्यतः ।। -योग-शास्त्र २, १०५ ब्रह्मचर्य के प्रभाव से प्राणी दीर्घ आयु वाला, सुन्दर आकार वाला, दृढ़ शरीर वाला, तेजस्वी और अतिशय बलवान् होता है। एकमेव व्रतं श्लाघ्यं ब्रह्मचर्य जगत्त्रये । यद्विशुद्धि समापन्नाः पूज्यन्ते पूजितैरपि । -ज्ञानार्णव ११,३ तीन जगत में एकमात्र ब्रह्मचर्य व्रत ही प्रशंसा करने योग्य है, क्योंकि जिन पुरुषों ने इस व्रत की निरतिचार-पूर्वक निर्मलता प्राप्त की है, वे पूज्य पुरुषों के द्वारा भी पूजे जाते हैं। ब्रह्मव्रतमिदं जीयाच्चरणस्यैव जीवितम् ॥ स्युः सन्तोऽपि गुणा येन विना क्लेशाय देहिनाम् ।। -ज्ञानार्णव ११,४ यह ब्रह्मचर्य नामक महाव्रत जयवन्त हो। क्योंकि चारित्र का एकमात्र यह ही जीवन है और इसके बिना अन्य जितने भी गुण हैं, वे सब जीवों को केवल क्लेश के ही कारण होते हैं। नाल्पसत्त्वैर्न निःशीलन दीनै क्षनिजितैः । स्वप्नेऽपि चरितुं शक्यं ब्रह्मचर्यमिदं नरैः ॥ -ज्ञानार्णव ११,५ ___ जो अल्पशक्ति पुरुष हैं, शील-रहित हैं, दीन हैं और इन्द्रियों के द्वारा जीते गए हैं; वे इस ब्रह्मचर्य व्रत को स्वप्न में भी धारण नहीं कर सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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