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________________ १४ ब्रह्मचर्य - दर्शन एवं अपवित्र नहीं हो जाता है। वस्तुतः पतित वह है, जिसका आचार-विचार निकृष्ट है। जिसके भाव, भाषा और कर्म निम्न कोटि के हैं, जो रात-दिन भोगवासना में डूबा रहता है, वह उच्च कुल में पैदा होने पर भी नीच है, पामर है । यथार्थ में चाण्डाल वह है जो सज्जनों को उत्पीड़ित करता है", व्यभिचार में डूबा रहता है और अनैतिक व्यवसाय करता है या उसे चलाने में सहयोग देता है । देश के प्रत्येक युवक और युवती का कर्तव्य है कि वह अपने आचार की श्रेष्ठता के लिए "Simple living and high thinking." - सादा जीवन और उच्च विचार का आदर्श अपनाए । वस्तुतः सादगी ही जीवन का सर्वश्रेष्ठ अलङ्कार है । क्योंकि स्वाभाविक सुन्दरता (Natural beauty) ही महत्वपूर्ण है और उसे प्रकट करने के किए किसी तरह की बाह्य सजावट ( Make-up ) की आवश्यकता नहीं है । इसका यह अर्थ नहीं है कि शरीर की सफाई एवं स्वस्थता के लिए योग्य साधनों का प्रयोग ही न किया जाए। यहाँ शरीर की सफाई के लिए इन्कार नहीं है । परन्तु इसका तात्पर्य इतना ही है कि वास्तविक सौन्दर्य को दबाकर कृत्रिमता को उभारने के लिए विलासी प्रसाधनों का उपयोग करना हानिप्रद है । इससे जीवन में विलासिता बढ़ती है और काम-वासना को उद्दीप्त होने का अवसर मिल सकता है । अतः सामाजिक व्यक्ति को अपने यथाप्राप्त रूप को कुरूप करके वास्तविक सौन्दर्य को छिपाने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु उसे कृत्रिम बनाने का प्रयत्न न करे । उसे कृत्रिम साधनों से चमकाने के लिए समय एवं शक्ति की बर्बादी करना मूर्खता है । हमारा बाहरी जीवन सादा और आन्तरिक जीवन सद्गुणों एवं सद्विचारों से सम्पन्न होना चाहिए 1 213 सौन्दर्य आत्मा का गुण है । उसे चमकाने के लिए आत्म-शक्ति को बढ़ाने का प्रयत्न करें। अपने आप पर नियन्त्रण रखना सीखें। वासनाओं के प्रवाह में न बह कर, उन्हें नियन्त्रित करने की कला सीखें । यही कला जीवन को बनाने की कला है । और इसी का नाम आचार है, चरित्र (Character ) है और नैतिक शक्ति (Moral Power) है। इसका विकास आत्मा का, जीवन का विकास है । १२. जे अहिभवन्ति शाहुं, ते पावा ते अ चाण्डाला । - मृच्छकटिक १०, २२ । 13. Let our life be simple in its outer aspect and rich in its inner gain. Jain Education International -Ravindra Nath Tagore. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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