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________________ १७४ . ब्रह्मचर्य-दर्शन भाव को और कर्म को मैथुन कहते हैं । मैथुन ही अब्रह्म है । पूज्यपाद ने तत्त्वार्थसूत्र ७-१६ की सर्वार्थ सिद्धि में कहा है-मोह के उदय होने पर राग परिणाम से स्त्री और पुरुष में जो परस्पर संस्पर्श की इच्छा होती है, वह मिथुन है और उसका कार्य (सम्भोग) मैथुन है । दोनों के पारस्परिक भाव एवं कर्म मैथुन नहीं, राग-परिणाम के निमित्त से होने वाली चेष्टा एवं क्रिया मैथुन है । अकलंक देव ने 'तत्त्वार्थसूत्र' ७-१६ के अपने राजवार्तिक में एक विशेष बात कही है-हस्त, पाद, और पुद्गल-संघटन आदि से एक व्यक्ति का अब्रह्म सेवन भी मैथुन है । क्योंकि यहाँ एक व्यक्ति मोह के उदय से प्रकट हुए काम रूपी पिशाच के सम्पर्क से दो हो जाता है और दो के कर्म को मैथुन कहने में कोई बाधा नहीं है । अकलंकदेव ने यह भी कहा है कि-पुरुषपुरुष और स्त्री-स्त्री के बीच रागभाव होने से होने वाली अनुचित-चेष्टा भी अब्रह्म है। ब्रह्मचर्य : योग का अंग योग-साधना में विशेष रूप से ब्रह्मचर्य की साधना को महत्व दिया गया है । पतञ्जलि ने अपने 'योग-दर्शन' में पाँच यमों में ब्रह्मचर्य को भी एक यम माना है । भगवान महावीर ने अपने आचार-योग की आधारशिलारूप पंच महाव्रतों में ब्रह्मचर्य को भी साधु के लिए महाव्रत और गृहस्थ के लिए अणुव्रत के रूप में स्वीकार किया है । बुद्ध ने भी अपने पंचशीलों में ब्रह्मचर्य को एक शील माना है । इस पर से यह ज्ञात होता है कि ब्रह्मचर्य की साधना बहुव्यापी एवं विस्तृत साधना है । ब्रह्मचर्य की साधना स्त्री और पुरुष दोनों के लिए समानभाव से विहित है । अन्तर केवल इतना ही है कि पुरुष साधक के लिए उसकी ब्रह्मचर्य-साधना में स्त्री विघ्न रूप होती है और स्त्री साधक के लिए उसकी ब्रह्मचर्य-साधना में पुरुष बाधक होता है । किन्तु दोनों अलग-अलग रहकर ब्रह्मचर्य की साधना करते रहे हैं और कर भी सकते हैं । इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि, पुरुष के लिए जैसे नारी वर्जित है, उसी प्रकार साधना-काल में स्त्री के लिए पुरुष भी वर्जित है । जो साधक योग की साधना करना चाहते हैं और उसके फल की उपलब्धि करना चाहते हैं, उन्हें सबसे पहले ब्रह्मचर्य की साधना की ओर विशेष लक्ष्य देना पड़ता है । योग-साधना में वासना, कामना, तृष्णा और आसक्ति बाधक तत्व हैं । मथुन : एक महादोष आचार्य हेमचन्द्र अपने 'योग-शास्त्र' में कहते हैं कि-प्रारम्भ में तो मैथुन रमणीय, एवं सुखद प्रतीत होता है, परन्तु परिणाम में वह अत्यन्त भयंकर एवं दुःखद रहता है । विषय-भोग उस किंपाक फल के समान हैं, जो देखने में लुभावना, खाने में सुस्वादु और सूंघने में सुगन्धित होते हुए भी परिणाम में भयंकर है, घातक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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