________________
१५६
ब्रह्मचर्य - दर्शन
विज्ञान के पण्डितों का अनुसरण करते हुए, मन की मूल शक्तियाँ तेरह स्वीकार की हैं । शक्ति, वृत्ति और प्रवृत्ति इन सब का एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता है और वह है, मन के व्यापार। जिस प्रकार दर्शन - शास्त्र में दो मतभेद हैं- एकवादी और अनेकवादी । वेदान्त समग्र विश्व की एक शक्ति में विश्वास रखकर चलता है और वह शक्ति है आत्मा एवं ब्रह्म । जैन, सांख्य, वैशेषिक और मीमांसक अनेकवादी इस अर्थ में हैं कि वे इस दृश्यमान जगत के मूल आधार दो मानते हैं—जीव और अजीव, प्रकृति और पुरुष, जड़ और चेतन । इसी प्रकार मनोविज्ञान के क्षेत्र में मानव-मन की मूल-शक्ति के विषय में जब प्रश्न उपस्थित हुआ, तब उनमें भी दो विचारधाराएँ प्रकट हुईं- एकवादी और अनेकवादी । डा० फ्रायड एक्वादी हैं और मेगडूगल अनेकवादी हैं । जब डा० फ्रायड से यह पूछा गया कि वह मन की मूल - शक्ति किसको मानता है, तब उसने उत्तर दिया कि काम एवं वासना ही मन की एक मूलशक्ति है । फ्रायड के अनुसार मानव-मन की मूलशक्ति काम एवं वासनामयी है । मानव-जीवन की मूल इच्छा, कामेच्छा है । यही इच्छा अनेक प्रकार के भोगों की इच्छा में परिणत हो जाती है और मनुष्य की अनेक प्रकार की क्रियाओं का रूप धारण करती है । मनुष्य अपने जीवन में जो कुछ भी कार्य करता है, उसके मूल में उसके मन की काम-वासना ही रहती है । वह अपने प्रकाश के लिए अनेक मार्ग ढूंढ़ती है । जब उसका निर्गमन स्वाभाविक रूप से नहीं हो पाता तब वह अस्वाभाविक एवं अप्राकृतिक रूप में फूट पड़ती है । सभ्यता एवं संस्कृति का विकास, इसी काम इच्छा के अवरोध (Inhiatition ), मार्गान्तरीकरण (Rediraction ), रूपान्तर (Transformation) अथवा शोध (Sublimation ) में है । इस शक्ति के अत्यधिक दमन एवं अत्यधिक प्रकाशन में, मनुष्य अपने स्वरूप को भूल बैठता है । डा० फ्रायड का कथन है कि व्यक्ति में जन्म से ही काम वासना रहती है । यह वासना शिशु में भी वैसी ही प्रबल रहती है, जैसी कि प्रौढ़ व्यक्ति में । शिशु को काम वासना और प्रौढ़ व्यक्ति की काम-वासना में केवल प्रकाशन पद्धति का ही भेद है । प्रौढ़ अवस्था में अथवा तरुण अवस्था में यह वासना सम्भोग क्रिया का रूप धारण करती है, परन्तु शिशु अवस्था में यही वासना अपनी जननेन्द्रिय से खेल करने आदि का रूप धारण करती है । किसी भी व्यक्ति के किसी भी प्रकार के प्रेम-प्रदर्शन में इसी काम-वासना का कार्य देखा जाता है |
वासना की व्यापकता :
मानव-जीवन में वासना अनेक रूपों में प्रकट होती है । मानव- समाज, इस वासना के दमन के अनेक उपाय सोचता है। शिष्टाचार एवं सभ्यता के अनेक नियमों की रचना, इस वासना के दमन के हेतु की गई है । इसी दमन के परिणाम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org