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________________ १३८ ब्रह्मचर्य - दर्शन दूषित वातावरण, प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों पर ही नहीं, बल्कि अधखिले कोमल बालक तथा बालिकाओं के मन को भी प्रभावित करता है । वे जिधर भी आँख उठाकर देखते हैं, उधर ही उन्हें हठात् खींच ले जाने वाले प्रलोभन उमड़ते-घुमड़ते हुए नजर आते हैं । उस लुभावने और वासनामय दृश्य को देखकर, वे अपने को रोक नहीं सकते । आगे चलकर वे भी उसी वासना के प्रवाह में प्रवाहित हो जाते हैं, जिसमें उनके माता और पिता, भाई और बहिन तथा अन्य परिजन प्रवाहित होते रहते हैं । नृत्य, संगीत, और आज का बहुरंगी सिनेमा - यह सब मिलकर कोमल मन को कोमल भावनाओं पर तीव्रतर आघात करते हैं । ग्रीक के महान् दार्शनिक प्लेटो ने अपने गुरु सुकरात की शिक्षा का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि "नाटक, संगीत और वासनामय खेल तमाशे, मनुष्य के मन पर बुरा प्रभाव डालते हैं । अतः मनुष्य को वासना भड़काने वाले नाटक नहीं देखने चाहिएँ ।" यहाँ कुछ लोग तर्क कर सकते हैं कि नाटक सिनेमा आदि के जहाँ कुछ अंश बुरे होते हैं, वहाँ कुछ अंश अच्छे एवं शिक्षाप्रद भी तो होते हैं । अतः नाटक आदि का एकान्ततः निषेध न्यायोचित नहीं है । इस सन्दर्भ में मुझे कहना है कि सर्व साधारण मानव का दूषित मन अच्छे संस्कारों को प्रथम तो शीघ्र ही ग्रहण नहीं कर पाता । यदि करता भी है, तो वे क्षणिक रहते हैं । जीवन के कर्तव्य क्षेत्र में बद्धमूल नहीं होते । मनोविज्ञान- शास्त्र के पण्डित विलियम जेम्स ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि, " एक रसियन महिला नाटक के दृश्य में सरदी से ठिठुरते हुए एक मनुष्य को देखकर आँसू बहाती रही, परन्तु उसके स्वयं के घोड़ा और कोचवान नाटकशाला के बाहर रूस के खून जमा देने वाले भयंकर पाले में मरते रहे ।" यह घटना स्पष्टतः इस तथ्य को प्रकट करती है कि अधिकांश दर्शक केवल अपनी वासना की परितृप्ति के लिए ही नाटक और सिनेमा के दृश्यों को देखते हैं । उनके सुन्दर भावों को वे अपने मन पर अंकित नहीं कर पाते । प्रतिदिन नाटक अथवा सिनेमा देखने वाले, उसके दूरगामी भयंकर दुष्परिणाम की ओर आँखें खोलकर नहीं देख पाते । इसे आँखों के होते हुए भी आँखों का अन्धापन कहा जाता है । चक्षुष् इन्द्रिय का यह रूप सम्बन्धी दुरुपयोग, भारत के प्राचीन ऋषि-मुनियों से भी छिपा हुआ न था । इसीलिए उन्होंने ब्रह्मचर्य के नियमों का वर्णन करते हुए, कहा - " नर्तनं गीतं, वादनं च" अर्थात् ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले साधक को नृत्य, संगीत और वादन का उपयोग नहीं करना चाहिए। भारत के प्राचीन शास्त्रों तो यहाँ तक भी कहा गया है कि ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले को अपना स्वयं का मुख भी दर्पण में नहीं देखना चाहिए। क्योंकि दर्पण के उपयोग से मन में सौन्दर्य आसक्ति की भावना उत्पन्न होती है । प्रौढ़ व्यक्ति ही नहीं, भोले भाले बालक एवं बालिकाएँ भी अपने मुख को दर्पण में देखकर अपने स्वयं के विषय में तरह-तरह की कल्पनाएँ करने लगते हैं । नेत्र संयम ब्रह्मचर्य पालन के लिए प्रथम सोपान है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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