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________________ ब्रह्मचर्य की परिधि १३७ अध्यवसाय और सम्भोग । इन आठ प्रकार के मैथुन-भाव का परित्याग ही वस्तुतः ब्रह्मचर्य शब्द का मौलिक अर्थ हैं। भारत के विभिन्न धर्म-शास्त्रों में ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले साधक को चेतावनी देते हुए कहा गया है कि वत्स! इन आठ प्रकार के मैथुन में से किसी एक का भी सेवन मत करो। काम का जन्म पहले मन में होता है, फिर वह शरीर में पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है। स्मरण से लेकर और सम्भोग तक मैथुन के जो आठ भेद बतलाए हैं, उनमें मानसिक, वाचिक, एवं कायिक सभी प्रकार का अ-ब्रह्मचर्य आ जाता है । इस अब्रह्मचर्य से, अपनी वीर्यशक्ति के संरक्षण करने का आदेश और उपदेश समय-समय पर शास्त्रकारों ने दिया है । मनुष्य के मन को विकार और वासना की ओर ले जाने वाले, उसके मनोवेग और इन्द्रियाँ हैं। मनुष्य जैसा विचार करता है, वैसा ही वह बोलता है और जैसा बोलता है, वैसा ही वह आचरण करता है। अतः विचार, वाणी और आचार पर उसे संयम रखना चाहिए । ब्रह्मचर्य के उपदेश में एक-एक इन्द्रिय को वश में करने पर विशेष बल दिया गया है । इन्द्रियों के निग्रह को ब्रह्मचर्य कहा गया है। इन्द्रियाँ पाँच हैं-आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा । इन पांच इन्द्रियों का निग्रह करना आसान काम नहीं है । किन्तु यह भी निश्चित है कि जब तक इन्द्रियों के अधोवाही प्रवाह को ऊर्ध्ववाही नहीं बनाया जाएगा, ब्रह्मचर्य की साधना में तब तक सफलता नहीं मिल सकती । जब इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय में प्रवृत्त हो जाती हैं, तब वे मनुष्य के नियन्त्रण में नहीं रहतीं। इन्हें नियंत्रण में रखने के लिए यह आवश्यक है कि इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से हटाया जाए और उन्हें बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी बनाने का प्रयत्न किया जाए। पाँच इन्द्रियों के पाँच विषय इस प्रकार हैं-चक्षु का विषय रूप, श्रोत्र का विषय शब्द, घ्राण का विषय गन्ध, रसना का विषय रस और स्पर्शन का विषय स्पर्श । मनुष्य के मन में प्रसुप्त विकार और वासना को जागृत करने के लिए नेत्र सबसे बलवान हैं । रूप को देखना इनका मुख्य कार्य है। रूप कैसा भी क्यों न हो, किन्तु उसे देखने की लालसा प्रायः प्रत्येक मनुष्य के मन में बनी रहती है। रूपदर्शन की इस लालसा और आसक्ति को जीतना ही नेत्र-संयम है, नेत्र का ब्रह्मचर्य है। संयम को साधना करने वाले साधक के लिए, अपने नेत्र की इस प्रवृत्ति पर नियंत्रण करने की बहुत बड़ी आवश्यकता है । आज का नागरिक जीवन और उसका एतन्मैथुनमष्टांगं प्रवदन्ति मनीषिणः । विपरीतं ब्रह्मचर्यमेतदेवाष्टलक्षणम् ||३२|| -दक्षस्मृति, अ. ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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