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________________ अस्तेय दर्शन / ७१ से अपना उल्लू सीधा नहीं करना है और धोखा देकर नहीं कमाना है, तो हिंसा और असत्य अपने आप ढीले पड़ जाएँगे । वहाँ क्रूरता या छलछंद का दुर्भाव कैसे रह सकता है ? इसीलिए इस अस्तेय व्रत को भी उतना ही महत्त्व दिया गया है, जितना कि अहिंसा और सत्य के व्रत को । अहिंसा और सत्य व्रत की रक्षा अचौर्यव्रत के द्वारा ही हो सकती है। यदि मनुष्य ईमानदार है, जैसी वस्तु है उसका उसी रूप में व्यवहार करता है, ज्यादा नफा लेकर दूसरे का गला नहीं काटता है, और प्रामाणिकता पूर्वक दूसरे सभी काम भी करता है, अर्थात् सावधानी के साथ अचौर्यव्रत का पालन करता है तो उसके अहिंसा और सत्य व्रत भी सुरक्षित हो जाते हैं। इसलिए प्रश्न यह नहीं है कि मैंने यह सब सुना दिया और आप सबने वह सब कुछ सुन लिया, बस सब काम पूरा हो गया। बात तो वास्तव में यह है कि जब तक आप जीवन में इस व्रत का उपयोग नहीं करेंगे। तब तक अपने जीवन को प्रगति के पथ पर नहीं डाल सकेंगे। जीवन में महत्ता प्राप्त नहीं कर सकेंगे। __ पहले की तरह आज भी विचारकों के कुछ प्रश्न हमारे सामने हैं । व्याख्यान, व्याख्यान हैं, रिकार्ड बजना नहीं । रिकार्ड एक बार चढ़ा दिया तो अविराम गति से बजता रहता है। उसको बीच में रोकना चाहें और कहें कि जरा ठहरो, हमें विचार करना है, तो वह ठहेरगा नहीं । मैं रिकार्ड की तरह व्याख्यान नहीं देना चाहता कि बजता रहूँ, लगातार बोलता ही जाऊँ और बीच में कोई पूछने जैसी बात आ जाय तो बस खेल खत्म हो जाय ! व्याख्यान का उद्देश्य यही है कि हमें प्रत्येक टॉपिक पर, हरेक मुद्दे पर विचार और चिन्तन करना चाहिए। यही चीज व्याख्यान कहलाती है। अतएव अस्तेय के सम्बन्ध में, हमारे सामने जो प्रश्न प्रस्तुत हुए हैं, उन पर भी आज हमें विचार कर लेना चाहिए। पहला प्रश्न है-कोई मनुष्य दूकान करता है और उस होलत में दूसरी दूकान से या किसान के घर से माल लाता है। जो ज्यादा तोल कर ले आता है, डंडी मारता है और जितने माल के पैसे देता है, उससे अधिक माल तोल कर ले आता है। दूसरा मनुष्य वह है कि जिसके यहाँ कोई ग्राहक जाता है तो वह कम तोल देता है। मतलब यह है कि ग्राहक ने जितने माल के पैसे दिये हैं, उसे उतना माल मिलना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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