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________________ अस्तेय दर्शन/६९ तुम्हारे प्रशंसा-वचन उसको आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा ही देंगे। यह भी पुण्य का काम है। कहा है वचने का दरिद्रता बोलने में कृपणता क्यों करते हों ? प्रशंसा का एक वचन बोल दिया तो क्या खजाना खाली हो जायगा? और फिर तुम्हें मन भी प्राप्त है । मन में शुभ भावनाएँ और पवित्र संकल्प करो और बार-बार प्रभु के चरणों में प्रार्थना करो तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु । प्रभो ! मेरे मन में मंगलमय संकल्प ही जागृत रहें। इस प्रकार जैनधर्म द्रव्य और भाव दोनों में ही चल रहा है। अतएव जिसके पास स्थूलशक्ति है, वह भी समाजसेवा कर सकता है और जिसके पास वह नहीं है वह भी सेवा कर सकता है। तो, सेवा का द्वार सभी के लिए उन्मुक्त है। फिर भी जो अपनी शक्ति का उपयोग नहीं करता या गलत उपयोग करता है, वह ज्ञानियों की दृष्टि में अपनी शक्ति की चोरी करता है। जो इस प्रकार की चोरी से भी बचेंगे, वही वास्तव में अपनी आत्मा का उत्थान और कल्याण करेंगे। व्यावर, अजमेर २३.१०.५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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