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________________ ६८ / अस्तेय दर्शन मत समझो कि दूसरों के हितार्थ अपनी शक्तियों का व्यय करने से तुम शक्तिहीन हो जाओगे। जब तुम मुक्त मन से अपने आपको जनता के श्रेयस् के लिए अर्पित कर दोगे, तब देखोगे कि तुम्हारी एक-एक शक्ति सौ-सौ रूप ग्रहण कर रही है। तुम शक्तिहीन नहीं, अधिक शक्तिमान् बन रहे हो, तुम्हारी शक्तियों का हास नहीं, विकास हो रहा है। वह हजार और लाख गुना होकर तुम्हारे सामने आ रही है। भगवान महावीर का पथ संकीर्ण नहीं है। उस पर चलने के लिए न श्रीमन्त होना आवश्यक है और न पण्डित होना ही अनिवार्य है। वह जैसे श्रीमन्तों और पण्डितों के लिए है, वैसे ही, बल्कि उससे जो ज्यादा, अकिंचनों के लिए भी है। भगवान् ने इसीलिए तो नौ पुण्य बतलाये हैं । एक भूखा आपके सामने आता है अथवा एक प्यासा आपके पास आता है। आप उसे भोजन और पानी दे देते हैं तो आप पुण्य का उपार्जन करते हैं। कोई नंगा और उघाड़ा है और उसका तन ढकने के लिए आपकी सन्दूक में से एक वस्त्र बाहर आता है तो भी आप पुण्य कमाते हैं और अपने लिए स्वर्ग का द्वार खोलते हैं । इस प्रकार अनेक पुण्य बतलाने के बाद गहराई में उतर कर भगवान् बोले-संभव है, कोई ऐसी स्थिति में हो कि अन्न, वस्त्र आदि का दान न कर सकता हो, स्वयं इनके अभाव में पीड़ित हो, तो वह पुण्य कैसे कर सकेगा? अन्न और वस्त्र आदि का दाता तो इन्हें देकर पुण्य कमा लेगा, पर इन चीजों को लेने वाला दरिद्र किस प्रकार पुण्य उर्पाजन कर सकेगा। क्या उसके लिए पुण्य का द्वार बन्द है? नहीं, पुण्य का द्वार हरेक के लिए और हरेक परिस्थिति में खुला है। जिसके पास और कुछ भी देने को नहीं है, उसके पास भी आखिर शरीर तो है ही और वह शरीर के द्वारा ही पुण्य का उपार्जन कर सकता है। बच्चा चलते-चलते ठोकर खा गया है तो उसे उठा दो। अन्धे को मार्ग बतला दो। किसी बीमार की सेवा करने के लिए कोई नहीं है तो आत्मीय जन समझ कर उसकी सेवा कर दो। यह काय-पुण्य है । मनुष्य का शरीर शक्ति का भंडार है, अगर सेवा के लिए उसका उपयोग किया गया तो यह भी बड़ा भारी पुण्य है। ____ वचन के विषय में पहले कहा जा चुका है। और कुछ भी न बन पड़े तो जीभ से गुणी जनों की प्रशंसा ही कर दो। पुण्यात्माओं की प्रशंसा करना भी पुण्योपार्जन का एक द्वार है-एक पुण्य है। अतएव जो पुण्यकार्य कर रहे हैं, उनका गुणगान करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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