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________________ ५४/ अस्तेय दर्शन मैं समझता हूँ, कोई भी विवेक-शील व्यक्ति मेरे इस कथन से असहमत नहीं हो सकता-अगर मैं कहूँ कि देश जब तक पाँच-दस वर्ष के लिए अन्न की समुचित व्यवस्था न कर ले, तब तक मछलियों को और बन्दरों को अनाज देना, इन्सान को भूखा मारना है । इन्सान के अधिकारों को छीनना है। एक बात और स्पष्ट कर दूं। कोई यह न समझे ले कि मनुष्य का केवल मनुष्य के साथ ही रिश्ता है और मनुष्येत्तर प्राणियों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं ऐसा नहीं समझता। मनुष्य प्राणीजगत् में सब से अधिक विकसित और सामर्थ्य-सम्पन्न प्राणी है, अतएव वह बड़े भाई के समान है और दूसरे प्राणी इसके छोटे भाई के सदृश हैं । ऐसी स्थिति में मनुष्य का कर्तव्य है कि वह उनके प्रति भी सहानुभूति, दया और प्रेम की धारा बहाए । अपनी मैत्री भावना को, जो साधारणतया अपने परिवार तक सीमित रहती है, क्रमशः विकसित करता हुआ प्रत्येक मानव के पास ले जाय और फिर शनैः शनैः अन्य चर और अचर प्राणियों के पास भी । यही मैत्री-भावना के विकास का स्वाभाविक क्रम है। जहाँ इस क्रम का व्यक्तिक्रम होता है-वहाँ अस्वाभाविकता है, बनावट है, अव्यवस्था है। मैं समझता हूँ, वहाँ भगवदाज्ञा की चोरी भी है। इस चोरी से बचना भी विवेकशीलों का कर्तव्य है। व्यावर, अजमेर २.११.५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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