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अस्तेय का विराट रूप
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चोरी का मतलब आम तौर पर समझा जाता है-किसी की चीज उसकी अनुमति के बिना उठा लेना, छीन लेना, अपने कब्जे में कर लेना और डाका डाल कर या बलात् ले लेना । ताला तोड़ लेना, जेब काट लेना, आदि-आदि बातें चोरी के अन्तर्गत मानी जाती हैं। इसी प्रकार जो दूसरों के अधिकार की वस्तुएँ हैं, दूसरों के काम में आने वाली चीजें हैं, उन्हें धोखा देकर ले लेना, या फुसला कर ले लेना भी चोरी में ही शुमार किया जाता है। जहाँ तक चोरी शब्द के अर्थ को मोटे रूप में समझ लेने की बात है, इन सब बातों को चोरी समझ लेने में कोई कठिनाई नहीं होती। किन्तु चोरी के और भी अंग हैं और वे इतने सूक्ष्म हैं कि उनके विषय में हमें गहराई से सोचना है और जब गहराई से सोचेंगे, तभी हम भली प्रकार से उन्हें समझ सकेंगे ।
विचार कीजिए, किसी आदमी के पास सम्पत्ति है। वह सम्पत्ति आखिर समाज में से ही तो ली गई है। वह आकाश से नहीं बरसी है और न पूर्वजन्म की गठरी ही बाँध कर साथ में लाई गई है। मनुष्य तो केवल यह शरीर ही लेकर आया है। बाकी सब चीजें तो उसने यहीं प्राप्त की हैं। और प्राप्त तो कर लीं है, किन्तु उनका यदि उपयोग नहीं करता है, ठीक-ठीक उपयोग नहीं कर रहा है, उन्हें दबाए बैठा है, न अपने लिए,
दूसरों के लिए ही काम में लाता है। भूखा रहा, प्यासा रहा, आर्त्तध्यान में रहा और रौद्रध्यान में रहा, किन्तु उस सम्पत्ति का उपयोग नहीं किया। सर्दी आई, गर्मी आई, बरसात आई और वह दूसरों के मकान में या इधर-उधर बिलकुल रद्दी ढंग से रहा, किन्तु उसने अपने मकान को ठीक नहीं करवाया। प्रश्न होता है - यह भी चोरी है या नहीं ?
वह, जो सारी सामग्री होने पर भी सर्दी, गर्मी या बरसात से बचने के लिए मकान के रूप में अपनी सम्पत्ति का उपयोग नहीं करता, और जब उपयोग नहीं करता तो उनके अन्तःकरण में आर्त्त-रौद्र ध्यान आते हैं, मन अशान्त रहता है। यदि पूर्ति करले तो मन शान्त हो जाय, किन्तु वह पूर्ति नहीं करता है और अशान्ति में कर्म बांधता जाता है। फिर भी सारी लक्ष्मी को दबाए बैठा है !
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