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________________ अस्तेय दर्शन/५३ उत्पादन होता था और जनता द्वारा यथेष्ट रूप से उपयोग कर लिए जाने पर भी प्रचुरमात्रा में बाकी बच रहता था, तो अपनी दान की भावना को चरितार्थ करने के लिए लोग कबूतरों को, चींटियों को और मछलियों को खिला दिया करते थे ! और इस प्रकार हजारों-लाखों मन अनाज उन्हें डाल दिया जाता था । उस समय यह प्रणाली प्रशंसनीय ही कही जा सकती थी। किन्तु आज के मनुष्य को देश की वर्तमान परिस्थिति ध्यान में रखनी चाहिए। जब हमारे देश के इन्सान एक मुट्ठी अन्न के अभाव में मर रहे हों, तब चीटियों के लिए हजारों मन आटा मैदान में बिखेर देना, विवेकशीलता नहीं है। आपै आटा डाल कर कुछ दूर गये-और दूर बैठा हुआ कुत्ता वहाँ आया और उस मीठे आटे को चाटने लगा-तो, वे बेचारी चीटियाँ, जो उस आटे को खा रही थीं, कुत्ते के पेट में आटे के साथ ही चली गईं। तो, इस प्रकार दान करने से तो पुण्य के स्थान पर और पाप हुआ। अस्तु, यह दान का ढंग अज्ञानपूर्ण है। मेरे इस कथन का आशय अन्तराय डालने का नहीं है। मैं तो, क्रम को समझाना चाहता हूँ। मैं पहले ही कह चुका हूँ कि आहार जब थोड़ा होता है तो साधुओं में भी क्रमपूर्वक वितरण करने का नियम है। घर में भी क्रम से ही देने की परम्परा है। - इस क्रम को भुला देने से अनेक अनर्थ होते हैं । जो प्रकृति पर आधारित रहकर अपने जीवन को आनन्दपूर्वक बिता सकते हैं और आपके अन्न के भरोसे जीवित नहीं हैं, जिनकी प्रकृति भी मूलतः अन्न खाने की नहीं है, उनको तो प्रचुर अन्न खिलाया जाता है और अन्न जिनका प्राण है, जिनके लिए अन्नं वै प्राणाः' कहा गया है और इस प्रकार जो अन्न के बिना जीवित नहीं रह सकते वे अन्नाभाव से भूखे मर रहे हैं। आपके अज्ञानपूर्ण दान के कारण अधिकारी नहीं, किन्तु अनधिकारी प्रचुर मात्रा में अन्न प्राप्त कर रहे हैं। _ बिहार आपसे दूर नहीं है। आसाम और बंगाल भी दूर नहीं, वहाँ के निवासी भी आपके भाई हैं, वे जब अन्न के अभाव में अपने शिशुओं को, अपनी बहू बेटियों को बेच देते हैं तो कितने घोर पाप की सृष्टि होती है । इस स्थिति में हमारे यहाँ दान की जो परम्परा चल रही है, उससे मानवीय अधिकारों का अपहरण होता है, और जहाँ यह अपहरण है, वहाँ चोरी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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