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________________ ३२ / अस्तेय दर्शन आवश्यक छह हैं, और अनुयोगद्वार में उल्लेख है कि दोनों काल छहों आवश्यक करने चाहिएँ । अब आप बतलाएँ कि साधुओं की सामायिक जब निरन्तर जारी रहती है तो फिर दोनों काल सामायिक करने का विधान उनके लिए क्यों किया गया? उनका प्रत्याख्यान भी सैदव बना रहता है, फिर प्रत्याख्यान आवश्यक करने की क्या आवश्यकता है ? अभिप्राय यह है, कि आवश्यक की सामान्य धारा तो निरन्तर प्रवाहित होती रहती है, किन्तु उसे वेगवान, स्फूर्तिमय और सबल बनाने के लिए सुबह-शाम विशेष रूप से सामायिक आदि आवश्यक करने का विधान है। यही विधान गृहस्थ के लिए है और यही साधु के लिए भी है। प्राचीन काल में यह बड़ी अच्छी बात थी कि प्रतिक्रमण खुले बदन ही किया जाता था, जिससे उस समय आने वाले कष्टों को, समभाव से, अधिक सहन किया जा सके। इस रूप में जितना देर प्रतिक्रमण चले, उतनी देर तक विशिष्ट सामायिक करने का हमारे लिए भी पुरातन विधान था । मतलब यह है कि श्रावक में भी सामायिक चारित्र होता है और वह दिन-रात, घर में और घर से बाहर भी चलना चाहिए। घर में हो तब भी और दूकान में हो तब भी, वह सामायिक चालू ही रहनी चाहिए। अहिंसा और सत्य की वह सामायिक, जिसकी शिक्षा औपपातिक सूत्र में है, सोते-जागते, धर्म-स्थानक में, दूकान में और मकान में, सर्वत्र सर्वदा चलना चाहिए। आपका श्रावकपन ऐसा नहीं है कि जब धर्मस्थान में आये तो आ गया और जब धर्म स्थान छोड़ कर घर पर पहुँचे कि चला गया। वह तो जीवन पर्यन्त निरन्तर कायम रहने वाला है। इसका अर्थ यह है कि संवर-रूप में सामायिक धर्म है और वह जीवन पर्यन्त के लिए है । इस प्रकार जैनधर्म ने एक बड़ी महत्त्वपूर्ण प्रेरणा रक्खी है कि धर्म जनता के 'जीवन के साथ घुल-मिल जाना चाहिए । * समणेणं सावएण य अवस्स कायव्वं हवइ जम्हा, अंतो अहोनिसस्स य, तम्हा आवस्सयं नाम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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