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अस्तेय दर्शन / ३३
जहाँ जीवन है वहाँ सामायिक है और जहाँ सामायिक है वहाँ धर्म है। इस तरह जीवन, सामायिक और धर्म को एक रूप में समझ लेने पर सारी स्थिति ही बदल जाती है और एक बहुत बड़ी भ्रान्त धारणा दूर हो जाती है। ___ आज सामान्य रूप से लोगों की यह धारणा बनी हुई है कि धर्म स्थान में आये और सामायिक कर ली और ज्यों ही सामायिक पार ली कि फिर उससे कोई सरोकार नहीं । फिर आएँगे और फिर दो घड़ी सामायिक कर लेंगे ! जैसे विदेशों में धर्म रविवार के रविवार, गिर्जे में करने की चीज रह गई है, उसी प्रकार हमारी सामायिक भी दो घड़ी पालन करने की वस्तु बन गई है। कई लोग तो पर्युषण पर्व के आठ दिनों में ही आते हैं और धर्म कर लिया करते हैं, फिर साल भर के लिए फुरसत पा लेते हैं। फिर पर्युषण पर्व आया तो फिर लूट का माल लेने आ पहुँचते हैं ।
अधिकांश लोगों की इस प्रकार की मनोवृत्ति क्यों है ? इसका प्रधान कारण तलाश करेंगे तो मालूम होगा कि धर्म और जीवन को अलग-अलग समझना ही इसका कारण है। वास्तव में धर्म हमारे जीवन का अंग है और श्वास की तरह जीवन के साथ रहना चाहिए । अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि नियम भी जीवन के साथ घुले-मिले रहने चाहिए। अस्तेय व्रत की साधना :. __बात यहाँ अस्तेय की चल रही है। जो बात अहिंसा और सत्य के सम्बन्ध में है, वही अस्तेय के सम्बन्ध में भी है। अस्तेय हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। हमें सोचना है कि उसका नम्बर तीसरा क्यों है ? __ अहिंसा और सत्य की कसौटी अस्तेय है। आपने अहिंसा और सत्य का नियम ले लिया है, परन्तु वह आपके जीवन में कितना विकसित हुआ है अथवा नहीं हुआ है, इस बात की परीक्षा अस्तेय के द्वारा ही होती है।
एक आदमी जीवन के लिए दो रोटियाँ तलाश करने को इधर-उधर काम करता है। और जब घर से निकल पड़ता है तो संघर्ष में लग जाता है। वहाँ वह यही विचारता है कि भले न्याय से मिले या अन्याय से, रोटी मुझे मिलनी ही चाहिए। उसके लिए दूसरों का खून बहता हो तो बहे, पसीना बहता हो तो बहे, मेरी रोटी में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ना चाहिए। दूसरे का हक है तो भले रहे, पहले मुझे मिलनी चाहिए। दूसरा भूखा है तो मेरी बला से, मुझे कोई कमी न हो।
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