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१६ / अस्तेय दर्शन
गौरव का भाव उत्पन्न किया। उनके विषय में वहाँ की जनता ने कहा, "ये जिस देश के व्यक्ति हैं वह देश कितना महान् होगा ! जिस धर्म के मानने वाले इतने महान् हैं तो वह धर्म कितना महान् होगा।"
तो व्यापारियों ने जो पैसा कमाया और धर्म का प्रचार किया, वह केवल व्यापार की कला से । वे कलम की कला से ही अपने धर्म का प्रचार करके लौटे । __प्राचीन भारत का व्यापारी जब व्यापार के हेतु विदेश जाता था तो किस रूप में जाता था ? वह आज की भाँति नहीं जाता था। आज किसी व्यापारी को पता चल जाता है कि कमाई का "चान्स' है, तो वह रात को ही दौड़ पड़ता है; चुपके-चुपके चल देता है और किसी को पता नहीं लगने देता। यहाँ तक कि सगे भाई को भी पता नहीं चलने देता। सोचता है, "इस लूट में किसी का हिस्सा न हो जाय और पूरा का पूरा लाभ मैं ही प्राप्त कर लूँ।" दूसरे पूछते हैं, "क्या हुआ ?" तो वह तीक-ठीक बात नहीं बतलाता।
एक जगह लोगों ने मुझे एक व्यापारी की बात बतलाई जब वह कहीं से सौदा खरीद कर लाता । दूसरे उससे पूछते कि कहाँ गये थे ? तो वह उत्तर देता, "इधर-उधर गया था। फिर पूछा जाता-किससे सौदा लाये ? वह कहता, "तेरे से, मेरे से" । क्या लाये? "बस, यही सौदा-सादा।" अजी, क्या भाव लाये ? "यही छटाँक कमती छटाँक बढ़ती।"
वह व्यापारी इस प्रकार टालमटूल कर दिया करता। कहाँ से, किससे और किस भाव से लाया, यह पता नहीं देता था। और यह पता न देने में आज व्यापारी की कला समझी जाती है। आज उसकी यही बड़ी योग्यता है, जिससे व्यापारी ऊँचा चढ़ता है।
किन्तु पुराने युग में यह बात नहीं थी। उस युग का व्यापारी जब जाता था तो नगर भर में ढिंढोरा पिटवा दिया जाता था कि अमूक सेठ जी व्यापार करने के लिए विदेश जा रहे हैं, जिसे साथ में चलना हो चले । उसका सारा प्रबन्ध सेठ जी अपनी
ओर से करेंगे। पूँजी भी मिलेगी। टोटा पड़ेगा तो उसे स्वयं सेठजी भुगत लेंगे। नफा होगा तो उसी का होगा।
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