SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अस्तेय दर्शन / १७ संस्कृति अग्रदूत सार्थवाह : इस प्रकार एक बड़े व्यापारी के साथ हजारों हो लेते थे। जब ‘सार्थ' रवाना होता था तो राजा और नागरिक जन विदाई देने को उमड़ पड़ते थे। सारी जनता उनके लिए मंगल-कामना करती थी और मनाती थी कि यह सब सकुशल और सफल मनोरथ होकर लौटें । वे जब तक नहीं लौटते थे, समस्त नगर निवासी उनके लिए मंगल कामना करते रहते थे और उनके हृदय का आशीर्वाद उन्हें मिलता रहता था। यह ठीक था कि चन्द आदमी ही व्यापार के लिए जाते थे, किन्तु समस्त देश के निवासियों की सद्भावना उनके साथ होती थी। जब वे वापिस लौटते थे तो सम्राट् भी उनके स्वागत के लिए सामने जाता था और धूमधाम के साथ उनका नगर-प्रवेश कराया जाता था। वह साझेदारी का काम था, हिस्सा बांटने का काम था। हमारे प्राचीन साहित्य में भारतीय जन-जीवन की जो झलक देखने को मिलती है, वह कितनी स्पृहणीय है ! कैसी उदारता, सहानुभूति और उदार दृष्टि थी उस समय के व्यापारियों की । और इस सब के बदले में वे क्या घाटा उठाते थे ? नहीं, उन्हें जीवन की सभी समृद्धियाँ प्राप्त होती थीं। हमारी संस्कृति के ये अग्रदूत जहाँ कहीं गये, पैसा, सोना और चाँदी लेकर आये और साथ ही उस देश का प्रेम भी लेकर आये और उन्होंने एक देश का दूसरे देश के साथ मधुरतम सम्बन्ध भी जोड़ा। मगर आज भी क्या यही स्थिति है ? मैं समझता हूँ, आज का व्यापारी समाज उस उच्च आर्य-परम्परा पर स्थिर नहीं रहा है। वह बिगड़ गया है। पहले का व्यापारी कोरा अर्थलिप्सु नहीं था । वह अपनी सभ्यता और संस्कृति का भी प्रसार करता था और अच्छाइयाँ देकर और लेकर आता था। उत्तराध्ययन सूत्र में समुद्रपाल का वर्णन आता है। उसका पिता पालित श्रावक चम्पा का निवासी था। वह जहाज भर कर समुद्र के रास्ते विदेश में गया तो हजारों को हिस्सेदार बना कर गया और जब विदेश में पहुँचा तो उसने वहाँ के निवासियों के चित्त पर सुन्दर छाप लगाई । शास्त्र में आता है। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy