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________________ अस्तेय दर्शन / १५ जाता है, तो मैं समझता हूँ, वह अपने धर्म और अपनी सभ्यता की रोशनी देकर नहीं आएगा। यह संभव है कि वह चतुरता से लौट कर आ जाय और सम्पत्ति भी बटोर लाये, किन्तु उसके लिए वहाँ की जनता कहेगी-लूट कर ले गया। वह इतना धूर्त और चालाक था। इस प्रकार वह जनता की श्रद्धा लेकर नहीं, घृणा लेकर लौटेगा। ऐसे व्यापारी की स्थिति ठीक उस डाकू की तरह है, जो छापा मार कर ले जाता है और पीछे घर वाले रोते रहते हैं और उसके पीछे घृणा और द्वेष पनपते रहते हैं। एक व्यापारी जब इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न कर देता है तो उसके दूसरे साथियों पर से भी जनता का विश्वास उठ जाता है। संस्कृति का प्रतीक व्यापारी : व्यापारी संस्कृति का प्रतीक है । भारतवर्ष की सभ्यता इंडो-चायना या जावा-सुमात्रा में पहुँची, चीन में पहुंची या फिलीपाइन में पहुंची और भारत से बाहर आज भी हिन्दुओं के जो चिन्ह-भारत की संस्कृति के प्रतीक विदेशों में पाये जाते हैं, उन्हें वहाँ कौन ले गया था ? वहाँ तलवारों के बल पर वह सभ्यता नहीं पहुंची थी। राजा और महाराजा अपने साम्राज्य को बढ़ाने के लिए नहीं गये थे। वास्तव में विदेशों में भारतवर्ष की सभ्यता फैलाने वाले व्यापारी ही मुख्य थे। जावा-सुमात्रा, चीन और जापान, जहाँ कहीं भी नजर डालते हैं, वहाँ संस्कृत के शिला-लेख मिलते हैं । आपके यहाँ प्रचलित हजारों रीति-रिवाज वहाँ भी मिल जाते हैं। इतिहासज्ञ जानते हैं कि आपकी सभ्यता और आपके रीति-रिवाज वहाँ पहुँचे हैं। इसका अर्थ यह है कि भारत के व्यापारी जहाँ कहीं भी गये, वहाँ उन्होंने पैसा भी कमाया और साथ ही साथ जनता के हृदय की भावना भी कमाई। दोनों कमाइयाँ साथ-साथ कीं। वे केवल पैसा कमाकर ही नहीं लौटे, जनता के प्रेम की स्वर्गीय सम्पत्ति भी कमा कर लौटे। उन्होंने जनता को प्रेम दिया और बदले में प्रेम लिया और अपनी संस्कृति की गहरी छाप भी जनता के मानस-पटल पर अंकित कर दी। बौद्ध गये तो हजारों बौद्ध, जैन गये तो हजारों जैन और वैदिकधर्मी गये तो हजारों वैदिक बनाकर लौटे । व्यापारी लोग विदेशों में जाकर साधुओं की तरह उपदेश देने नहीं बैठे थे, उन्होंने वहाँ व्यापार ही किया, किन्तु अपनी व्यापारिक योग्यता और प्रामणिकता के द्वारा व्यक्तिगत प्रतिष्ठा ही कायम नहीं की. वरन् अपने देश के लिए भी बहुत बड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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