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________________ ८ / अस्तेय दर्शन सेठ सन्त के पैरों में पड़ता है। कहता है "ओह । इतने ज्ञानी और विचारवान् हैं आप कि भूल से रहे एक तिनके का भी अस्तित्व सहन न हो सका।" सन्त के प्रति सेठ की अब असीम श्रद्धा बढ़ गई। उसने कहा, "महाराज। मैं आपको नहीं जाने दूँगा । आप यहीं रहिए।" सन्त ने मुस्करा कर कहा "नहीं, यह संभव नहीं। मैं तो जाऊँगा।" इतना कहकर सन्त तेज कदम बढ़ा कर चल दिए । उस काल में बुद्ध, अपने पूर्व जन्म में, एक व्यापारी के रूप में थे और उस समय उस सेठ के पास ही बैठे थे। उन्होंने उस साधु के इस व्यवहार को देखा और विचार किया। उन्हें जान पड़ा कि यह साधु लौट कर आया है और वैराग्य तथा त्याग की भाषा बोल रहा है; किन्तु इसके आन्तरिक जीवन में कोई ठोस तत्व नहीं दिख रहा है। यह अपनी गलती को, अपने जीवन में आये हुए कालेपन को ढंकने की चालबाजी खेलता प्रतीत होता हैं। साधक कदम सँभाल - सँभाल कर चलता है, फूँक-फूँक कर नहीं चलता। जीवन में चलता है, तो चलने के ढंग से चलता है, जीवन के प्रति ईमानदार होकर चलता है, किन्तु ऐसा नाटक नहीं खेलता है। एक घास के तिनके को लौटाने के लिए दो-चार मील तक कोई नहीं लौटकर आता। इस साधु की यह वृत्ति कुछ समझ में नहीं आती। कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ अवश्य है। दाल में कुछ काला अवश्य है। इस प्रकार सोचकर उस व्यापारी ने सेद से पूछा "कहीं धन तो नहीं रक्खा था इस साधु की जानकारी में ।" सेठ ने चौंक कर पूछा "तुम्हारे मन में यह आशंका क्यों उत्पन्न हुई ? जो घास का तिनका लौटाने आएगा, वह क्या धन ले जाएगा ?" व्यापारी बोला - "हाँ, यह दम्भ का प्रतीक है। यदि कुछ हो तो बतला दो ।" सेठ चिन्तित भाव से बोला "साधु के सामने, उनकी झोंपड़ी में धन गाढ़ा तो था, पर वह वहीं गढ़ा होगा ।" दोनों ने जाकर देखा तो वहाँ सफाचट मैदान था । सेठ ने कहा "यह क्या हो गया ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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