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अस्तेय दर्शन/७
सेठ विनम्र और श्रद्धायुक्त भाव से बोला "महाराज ! आप को इसकी आवश्यकता नहीं है, पर जिसको आवश्यकता है, उसके लिए यह बड़ी चीज है। किन्तु आप उसे क्यों स्पर्श करें ? मैं स्वयं अपने हाथों, इसे जमीन में गाढ़ दूंगा और आपको हाथ लगाने की आवश्यकता न होगी।"
तब सन्त ने कहा, “अच्छी बात है हम आंखें फेर लेते हैं।"
सन्त ने आंखें फेर ली और सेठ ने झोंपड़ी के एक कोने में पोटली गाढ़ दी। सेठ अब आनन्द में है। सोचता है-डाकू आएँगे तो महल में आएँगे और वहाँ अब क्या रक्खा है ? झोपड़ी में आएँगे तो बाबाजी का दंड-कमंडल देखकर ही लौट जाएँगे।
इस प्रकार सेठ सुरक्षा की भावना लेकर बैठ गया। वह सन्त बाहर में तो सन्त थे, किन्तु उनके अन्दर में तेज नहीं था, बल्कि गहरा अंधकार भरा पड़ा था। वहाँ यह हाल था कि दूसरों को रोशनी देने की चिन्ता ही थी, अपने आप में रोशनी लाने की चिन्ता नहीं थी। अतएव वह मन ही मन सोचने लगे अच्छा चाँटा लगा दिया ! बच्चू जिंदगी-भर याद करेगा ! ___ चौमासा उतर गया, फिर भी सेठ ने अपना धन नहीं निकाला। उपद्रव भी कम हो गया, फिर भी नहीं निकाला। जब सन्त के जाने का समय सन्निकट आया तो उन्होंने सारी सम्पत्ति निकाली और उसी दिशा में जंगल में ले जाकर गाढ़ दी, जिस दिशा में उन्हें जाना था। जब सब काम ठीक-ठाक हो गया तो उन्होंने सेठ से कहा “सेठ, अब हम चलते हैं । देखलो, अपनी झोंपड़ी संभाल लो।"
सेठ बोला "महाराज, आखिर यह झोंपड़ी ही तो है। इस में कौन-सी संभालने जैसी चीज है ?"
सन्त चले गये और कुछ दूर चले जाने के बाद वापिस लौट कर आये। उनके हाथ में घास का एक छोटा-सा तिनका था। वह सेठ के पास आकर बोले, 'बहुत बड़ा अपराध हो गया होता। हम तो मर मिटे होते और जीवन की सारी साधना मिट्टी में मिल गई होती। हम किसी काम के न रहते। देखो न , हम जब झोंपड़ी में से निकले तो घास का यह तिनका मेरी जटाओं में उलझा रह गया ! इसे फेंकता भी तो तुम्हारी आज्ञा के बिना फेंकता कैसे ? यह लो भाई, अपना तिनका । प्रभु की असीम कृपा हो गई कि जल्दी ही यह मेरे हाथ पड़ गया और मेरा जीवन अशुद्ध होते-होते बच गया।"
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