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________________ अस्तेय दर्शन/९ व्यापारी ने कहा, "अजी, वही ले गया है। संभव है उसका पीछा करने से रास्ते में कहीं मिल जाय ।" ऐसा ही किया गया। साधु रास्ते में मिल गया। उससे पूछा गया, "वह धन कहाँ है ?" साधु बोला, "हमको क्या पता तुम्हारे धन का ? हम तो घास का तिनका भी तुम्हें लौटा आए ।" तब उससे कहा गया, "सीधी बातें करो। हम जाने नहीं देंगे। उस धन के पीछे अपनी कम्बख्ती मत बुलाओ।" इस प्रकार धमकाने पर साधु की बुद्धि ठिकाने आई। उसने धन बतला दिया और वह खोद कर निकाल लिया गया । जहाँ दम्भ वहाँ धर्म कहाँ : आज के धार्मिक जीवन में इसी प्रकार का दंभ, दिखावा और बनावट का भाव प्रायः सर्वत्र दिखाई पड़ता है। साधु हो या गृहस्थ, प्रत्येक के जीवन में ऐसी वृत्ति आ गई है कि भीतर तो किसी बल का संचार नहीं होता और ऊपर से क्रिया की जा रही है। ऐसी क्रिया कब तक टिकने वाली है ? नीचे गंदगी पड़ी है और उसके ऊपर फूल डाले जा रहे हैं तो गंदगी कब तक रुकेगी? कब तक छिपेगी? परिणाम यही आएगा कि फूल की एक-एक कली, जो महक दे रही थी, गल-सड़ कर गंदगी का रूप धारण कर लेगी। अन्तधार्मिकता-विहीन कोरा क्रियाकाण्ड निष्प्राण शरीर के समान है। शरीर में जब चेतना नहीं रहती तो वह टिकता नहीं । वह सड़ने लगता है, गलने लगता है और दुर्गन्ध तथा जहर फैलाने लगता है। धार्मिकता-हीन क्रियाकाण्ड भी यही सब अनर्थ पैदा करता है। वह आत्मा में कषाय, अहंकार और पारस्परिक घृणा को उत्पन्न करता है। उससे व्यक्ति और समाज के जीवन का वातावरण दूषित भले ही हो सकता है, परन्तु पावन नहीं हो सकता। इसी प्रकार अहिंसा, सत्य या अस्तेय, कुछ भी क्यों न हो, अगर आन्तरिक जीवन में सुगन्ध मौजूद है, तो वह फूलों के ढेर के समान महत्त्व की वस्तु है और यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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