SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० / अस्तेय दर्शन - भावना काम नहीं कर रही थी। यदि वर्ण-व्यवस्था कायम करते समय शूद्र वर्ग को किसी भी अंश में हीन माना गया होता तो फिर कौन इस वर्ण व्यवस्था में सम्मिलित होने को तैयार होता। जैसे अन्य वर्ग समाज की सुविधा के उद्देश्य से कायम किए गए थे, उसी प्रकार यह वर्ण भी समाज की सुविधा के लिए ही बनाया गया था। कर्तव्य पराङ्गमुखता : आज ब्राह्मण समाज इस बात को बड़े गौरव के साथ दोहराता है कि हम ब्रह्माजी के मुख से पैदा हुए हैं। किन्तु इसके वास्तविक रहस्य को समझने का स्वप्न में भी प्रयत्न नहीं करता। इसी तरह क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी अपने-अपने दायित्व नहीं समझ रहे हैं। ब्राह्मणों का कर्त्तव्य है कि वे ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने के कारण आत्म-विद्या और आत्म-ज्ञान का प्रचार करें, उपदेश करें, अध्ययन करें । इसी तरह क्षत्रियों को चाहिए कि वे अपनी भुजाओं द्वारा असहायों, असमर्थों और दीनों का संरक्षण करें। वैश्य समाज का कर्त्तव्य है कि वह उदर से उत्पन्न होने के कारण कृषि, वाणिज्य तथा उद्योग के द्वारा मानव समाज की रोटी की समस्या हल करे। उसी तरह शूद्र वर्ग की भी यह जिम्मेदारी है कि वह समाज सेवा का व्रत ग्रहण करके अपनी सेवा से समाज को सुखी एवं स्वस्थ बनाये । अन्याय : आज शूद्र वर्ग के साथ जो अन्याय हो रहा है, वह देखकर हृदय तड़पने लगता है । शूद्र-वर्ग के लोग तो दिन भर कड़ी मेहनत करके समाज की कुत्सित-से - कुत्सित सेवा करते हैं और समाज के लोग उन्हें पास बैठाना भी नहीं चाहते। आश्चर्य की बात है कि मोटरों में कुत्ते और बिल्ली को तो जगह मिल जाती है, किन्तु मानव-देहधारी शूद्र को यह हक हासिल नहीं है। इंसान को इसान के पास बैठने का भी हक नहीं है। धर्म-स्थान में भी हरिजन को प्रवेश करने को अभी पूरी तरह से खुले आम अधिकार नहीं मिला है। एक शूद्र, मान लीजिये कि किसी धर्मस्थान में पहुँचा तो या तो वहाँ उसे प्रवेश ही नहीं मिलेगा या फिर उसे बाहर ही रुके रहने के लिए कहा जायगा । किन्तु उसे भी धर्मस्थान में बैठकर आत्मचिन्तन करने का अधिकार है, ऐसा नहीं माना जाता । वह बेचारा नीचे बैठकर धर्म प्रवचन सुनता है और अन्य तथाकथित सवर्णी लोग मंदिर में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy