SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अस्तेय दर्शन / १२१ बैठते हैं। हालांकि जो हवा उसे छूकर आती है, वह उन सवर्णी लोगों को भी लगती है। तो फिर उपाय ही क्या है ? जब हवा ही हमें भ्रष्ट कर रही है, तब फिर सहारा क्या रहेगा? इस अशोभनीय दृश्य को देखकर हमने प्रयत्न किया कि हरिजनों को भी सर्वसाधारण के पास ही बैठने की जगह मिलनी चाहिए। एक हरिजन तो दरवाजे के पास जूतों के किनारे खड़ा रहे और दूसरे-लोग अपने को बहुत बड़ा मानकर दरियों पर बैठें, यह ठीक नहीं । आज के इस प्रगतिवादी युग में भी ऐसे संकीर्ण लोग देखे गए हैं कि यदि हरिजन आया और संत के पैर छू गया तो फिर वे खड़े-खड़े ही वन्दना कर लेते हैं और साधू के पैर नहीं छूते । इस मन की संकीर्णता में वह कितनी बुरी तरह से उलझा हुआ है। भगवान महावीर ने इस संकीर्णता को सुलझाने का प्रयत्न किया था, लेकिन वे पूर्णतः सफल नहीं हुए। उनके बाद ढाई हजार वर्ष की लम्बी परम्परा गुजरी और आचार्यों ने अस्पृश्यता का समय-समय पर तीव्र विरोध भी किया। फिर भी वह उलझन आज तक बनी हुई है। दुर्भाग्य से कई, ऐसे भी साधु आए कि जिन्होंने जनता की रुढ़िवादी आवाज में अपनी आवाज मिला दी और अस्पृश्यता को प्रोत्साहन दिया। एक दिन जैन संस्कृति को जातिवाद के निरसन के लिए घोर संघर्ष करना पड़ा था. और नास्तिकता का उपालंभ सहकर भी उसने जातिवाद का विरोध किया था। दुर्भाग्य से आज वही पवित्र संस्कृति घृणित अस्पृश्यतावाद की दलदल में फंस गई। यहाँ तक की अस्पृश्यता के पक्ष में शास्त्र के प्रमाण भी आने लगे। कहा जाने लगा कि जो नीचा है वह अपने अशुभ कर्मो का फल भोग रहा है। एक ही जाति : वास्तव में जैन संस्कृति तो एक ही मनुष्य जाति स्वीकार करती है। मनुष्यों में दो जातियाँ हैं ही नहीं । मानव को देखते ही हम यही समझते हैं कि वह एक मानव है, वह शूद्र है या ब्राह्मण है या क्षत्रिय है, ऐसा बिना परिचय के तुरन्त मालूम नहीं होता। स्वाभाविक रूप से जितना मालूम होता है उतना ही वास्तविक है। उसके अलावा जो कुछ भी जातिवाद के प्रपंच रचे गये हैं के अवास्तविक हैं और संकीर्णता के द्योतक हैं। हमारी मध्यकालीन संस्कृति में कुछ ऐसी जड़ता आ गयी थी कि वह सब जगहों से हटकर एकमात्र भोजन के स्थान में बन्द हो गयी। न जाने यह झूठ किसने फैला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy