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________________ अस्तेय दर्शन / ११९ वर्णों का एकमात्र आधार उद्योग, धंधा या कर्तव्य था। समाज की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए ही ये वर्ण स्थापित हुए थे। समाज को शिक्षित करने के लिए ब्राहमण वर्ग स्थापित हुआ । किन्तु आज ब्राह्मण ऐसा समझता है कि मैं बहुत ऊँचा और पवित्र हूँ। शेष सभी मानव मुझसे नीचे हैं, अपवित्र हैं। संसार के साथ मेरा जो कुछ भी सम्बन्ध है, वह देने का नहीं, सिर्फ लेने ही लेने का है। किन्तु वास्तव में इस मनगढ़न्त सिद्धान्त पर ब्राह्मण वर्ण की स्थापना नहीं हुई थी । जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है, उसी प्रकार ताकतवर, प्रतिभावान और शक्तिशाली लोग असमर्थों का शोषण करने लगते हैं । यदि शक्तिमान लोग न्याय और अन्याय को कभी तोलते भी हैं तो उनका तराजू अपनी बुद्धि होती है और बांट अपने स्वार्थ का होता है। अपनी बुद्धि की तराजू में अपने स्वार्थ के बांटों से तौलने वाले न्याय और अन्याय को कब समझ सकते हैं ? शक्तिशाली और प्रभावशाली व्यक्तियों के हाथों से यदि असमर्थों और अविकसिल मनुष्यों का शोषण होता रहा, तो वह मानवीं का नहीं, बल्कि दानवों का समाज होगा। शक्तिशालियों द्वारा निर्बलों का उत्पीड़न न हो, उन्हें भी जीवित रहने का अधिकार मिले, उनकी भी समुचित रक्षा की जाय, इस प्रयोजन से क्षत्रिय वर्ण की स्थापना हुई। क्षत्रिय वर्ग और उनका मुखिया राजा, महलों में बैठकर ऐश-आराम करने के लिए नहीं था । अपितु इसलिए था कि देश के किसी भी कोने में जब अत्याचार हो और कोई एक वर्ग किसी दूसरे वर्ग द्वारा कुचला जाता हो तो क्षत्रिय अपनी प्राणों की आहुति देकर भी रक्षा का उत्तरदायित्व ग्रहण करें । वैश्य वर्ण की स्थापना दुनियाँ का शोषण करके अपने ही पेट को मोटा बनाने के लिये या अपनी ही जेब भरने के लिए नहीं हुई थी। प्रजा के जीवन निर्वाह की सामग्री सर्वत्र सुलभता से उपलब्ध होती रहे ; उपभोक्ताओं को प्रत्येक वस्तु समान सुविधा के साथ मिलती रहे, इसके लिए वैश्य वर्ग कायम हुआ । इस कर्त्तव्य का प्रामाणिकता के साथ पालन करने के बाद अपने और अपने परिवार के लिए वह उचित पारिश्रमिक ले सकता था। परन्तु आज तो वैश्य वर्ग शोषण का माध्यम बना हुआ है। उत्पादक और उपभोक्ता के बीच दीवार बना हुआ है। शूद्र वर्ग का कार्य भी बहुत महत्त्वपूर्ण था। समाज की सेवा करना, उसका कर्त्तव्य था । शूद्र वर्ग की स्थापना में किसी भी प्रकार की मानसिक संकीर्णता तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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