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________________ ९० / अस्तेय दर्शन स्वर्ग के देवता भी भारत भूमि के गौरव-गीत गाते रहते हैं, कि वे देव धन्य हैं, जो यहाँ से मरकर पुनः स्वर्ग और अपवर्ग मोक्ष के मार्ग स्वरूप पवित्र भारत भूमि में जन्म लेते हैं । भगवान् महावीर के ये वचन कि 'देवता भी भारत जैसे आर्य देश में जन्म लेने के लिए तरसते हैं' जब स्मृति में आते हैं तब सोचता हूँ, ये जो बातें कही गई हैं मात्र आलंकारिक नहीं हैं, - कवि की कल्पनाजन्य उड़ानें नहीं हैं; किन्तु दार्शनिकों और चिन्तकों की साक्षात् अनुभूति का स्पष्ट जयघोष है । इतिहास के उन पन्नों को उलटते ही एक विराट् जीवन दर्शन हमारे सामने आता है। त्याग, स्नेह और सद्भाव की वह सुन्दर तस्वीर खिंच जाती है, जिसके प्रत्येक रंग में एक आदर्श, प्रेरणा और विराट्ता की मोहक छटा भरी हुई है। त्याग और सेवा की अखण्ड ज्योति जलती हुई प्रतीत होती है रामायण में राम का जो चरित्र उपस्थित किया गया है, वह भारत की आध्यात्मिक और नैतिक चेतना का सच्चा प्रतिबिम्ब है। राम को जब अभिषेक की सूचना मिलती है, तब उनके चेहरे पर कोई विशेष उल्लास नहीं चमकता है, और वनवास की खबर मिलने पर कोई शिकन भी नहीं पड़ती है । प्रसन्नतां या न गताभिषेकतः तथा न मम्ले वनवास-दुःखत: । आत्म राम की यह कितनी ऊँची स्थितप्रज्ञता है, कितनी महानता है, कि जिसके सामने राज्यसिंहासन का न्याय प्राप्त अधिकार कोई महत्त्व नहीं रखता। जिसके लिए जीवन की भौतिक सुख सुविधा से भी अधिक मूल्यवान है, पिता की आज्ञा, विमाता की -तुष्टि। यह आदर्श एक व्यक्ति विशेष का ही गुण नहीं, किन्तु समूचे भारतीय जीवन पर छाया हुआ हैं। राम तो राम हैं ही किन्तु लक्षमण भी कुछ कम नहीं हैं। लक्ष्मण जब राम के वनवास की सूचना पाते हैं, तब वे उसी क्षण महल से निकल पड़ते हैं। सुन्दरियों का स्नेह उन्हें रोक नहीं सका, राजमहलों का वैभव और सुख राम के • साथ वन में जाने के निश्चय को बदल नहीं सका। वे माता सुमित्रा के पास आकर राम के साथ वन में जाने की अनुमति माँगते हैं। और माता का भी कितना विराट् हृदय हैं, जो अपने प्रिय पुत्र को वन-वन में भटकने से रोकती नहीं अपितु कहती हैं- राम के. साथ वनवास की तैयारी करने में तुमने इतना विलम्ब क्यों किया ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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