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________________ ३६-अध्ययन ४७९ प्रत्येक वे कहलाते हैं, जिन का शरीर अपना-अपना भिन्न होता है। जो एक का शरीर है, वह दूसरों का नहीं होता। प्रत्येक वनस्पति जीवों की उत्कृष्ट दश हजार वर्ष की आयु होती है, जघन्य अन्तर्मुहूर्त । साधारण जीवों की जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की ही आयु है। गाथा १०४-पनक का अर्थ सेवाल अर्थात् जल पर की काई है। परन्तु यहाँ कायस्थिति के वर्णन में पनक समग्र वनस्पति काय का वाचक है। सामान्य रूप से वनस्पति जीवों की उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्त काल बताई है, जो प्रत्येक और साधारण दोनों की मिलकर है। अलग-अलग विशेष की अपेक्षा से तो प्रत्येक वनस्पति, बादर निगोद और सूक्ष्म निगोद जीवों की असंख्य काल की कायस्थिति है। प्रत्येक की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट ७० कोटि-कोटि सागरोपम है। निगोद की समुच्चय कायस्थिति जपन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल है। बादर निगोद की उत्कृष्ट ७० कोटि-कोटि है, और सूक्ष्म निगोद की असंख्यात काल । जघन्य स्थिति दोनों की अन्तर्मुहूर्त है। गाथा १०७-तेजस, वायु और उदार त्रस-ये त्रस के तीन भेद हैं। तेजस् और वायु एकेन्द्रिय हैं, अत: अन्यत्र इन की गणना पाँच स्थावरों में की गई है। यह पक्ष सैद्धान्तिक है। स्थावरनाम कर्म का उदय होने से ये निश्चय से स्थावर हैं, बस नहीं। केवल एक देश से दूसरे देश में त्रसन अर्थात् संक्रमणक्रिया होने से तेजस् और वायु की त्रसमें गणना की गई है। इसका परिणाम यह हुआ कि त्रस के उदार और अनुदार भेद करने पड़े। आगे चलकर तेजस् और वायु को 'गतित्रस' और द्वीन्द्रिय आदि को त्रसनाम कर्म के उदय के कारण 'लब्धि त्रस' कहा गया। स्थानांग सूत्र (३।२।१६४) में उक्त तीनों को वस संज्ञा दी है । श्वेताम्बरसम्मत तत्त्वार्थ सूत्र में भी ऐसा ही उल्लेख है। आचारांग सूत्र का प्रथम श्रुत स्कन्ध सर्वाधिक प्राचीन आगम माना जाता है। उसमें यह जीव निकाय का क्रम एक भिन्न ही प्रकार का है-पृथ्वी, अग्नि, वनस्पति, त्रस और वायु। गाथा १६९-नरक से निकल कर पुन: नरक में ही उत्पन्न होने का जघन्य व्यवधानकाल अन्तर्मुहूर्त का बताया है, उसका अभिप्राय यह है कि नारक जीव नरक से निकल कर संख्यातवर्षायुष्क गर्भज तिर्यच और मनुष्य में ही जन्म लेता है। वहाँ से अति क्लिष्ट अध्यवसाय वाला कोई जीव अन्तर्मुहूर्त परिमाण जघन्य आयु भोग कर पुन: नरक में ही उत्पन्न हो सकता है। गाथा १७०-अतिशय मूढ़ता को संमूर्छा कहते हैं। संमूर्छा वाला प्राणी संमूछिम कहलाता है। गर्भ से उत्पन्न न होने वाले तिर्यंच तथा मनुष्य मन:पर्याप्ति के अभाव से सदैव अत्यन्त मूछित जैसी मूढ स्थिति में रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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