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________________ उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण गाथा ४८ – सिद्धों के स्त्रीलिंग और पुरुषलिंग आदि अनेक प्रकार पूर्व जन्मकालीन विभिन्न स्थितियों की अपेक्षा से हैं। वर्तमान में स्वरूपतः सब सिद्ध एक समान हैं । केवल अवगाहना का अन्तर है । अवगाहना का अर्थ शरीर नहीं है। अपितु अरूप आत्मा भी द्रव्य होने से अपनी अमूर्त आकृति को रखता ही है । द्रव्य आकार-शून्य कभी नहीं होता । आत्मा आकाश के जितने प्रदेश क्षेत्रों को अवगाहन करता है, उस अपेक्षा से सिद्धों की अवगाहना है । 1 ४७८ गाथा ५६–सिद्ध लोकाग्र में स्थित हैं, इसका अभिप्राय: यह है कि उनकी ऊर्ध्वगमन रूप गति वहीं तक है । आगे अलोक में गति हेतुक धर्मास्तिकाय का अभाव होने से गति नहीं हैं । यहाँ पृथ्वी पर शरीर छोड़कर वहाँ लोकाग्र में सिद्ध होते हैं, इसका इतना ही अभिप्राय है, कि गतिकाल का एक ही समय है । अतः पूर्वापर काल की स्थिति असंभव होने से जिस समय में भव क्षय होता है, उसी समय में लोकाग्र तक गति और मोक्ष स्थिति हो जाती है। वैसे निश्चय दृष्टि से भवक्षय होते ही सिद्धत्व भाव यहाँ ही प्राप्त हो जाता है । गाथा ६४ – पूर्व जन्म के अन्तिम देह का जो ऊँचाई का परिमाण होता है उससे त्रिभागहीन (एक तिहाई कम ) सिद्धों की अवगाहना होती है । पूर्वावस्था में उत्कृष्ट अवगाहना पाँच सौ धनुष की मानी है, अतः मुक्त अवस्था में शुषिर (शरीर के खाली पोले अंश) से रहित आत्म प्रदेशों के सघन हो जाने से वह घटकर त्रिभागहीन अर्थात् तीन सौ तेतीस धनुष बत्तीस अंगुल रह जाती है। और सबसे कम जघन्य (दो हाथ वाले आत्माओं की ) एक हाथ आठ अंगुल प्रमाण होती है । गाथा ७२ - प्रस्तुत सूत्र में खर पृथ्वी के ३६ भेद बताए हैं, जबकि प्रज्ञापना में ४० गिनाए हैं। इतने ही क्यों, यह तो स्थूल रूप से प्रमुखता की अपेक्षा से गणना हैं । वैसे असंख्य भेद हैं । बताया आगमकार ने ३६ भेदों की प्रतिज्ञा की है, जबकि मणि के प्रकारों में चार भेद गणना से अधिक हैं । वृत्तिकार ने इनका उपभेद के रूप में अन्तर्भाव दूसरों में है । पर, किस में किस का अन्तर्भाव है, यह सूचित नहीं किया है । - साधारण का अर्थ समान है। जिन अनन्त जीवों का समान - एक ही शरीर होता है, वे साधारण कहलाते हैं। शरीर का एकत्व उपलक्षण है । अत: उनका आहार और श्वासोच्छ्वास भी समान अर्थात् एक ही होता है । 'उपलक्षणं चैतद् आहारानपानयोरपि साधारणत्वात् - सर्वार्थ सिद्धि । गाथा ९३ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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