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३१-अध्ययन
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१. अति स्निग्ध पौष्टिक आहार नहीं करना। २. पूर्व मुक्त भोगों का स्मरण नहीं करना अथवा शरीर की विभूषा नहीं करना। ३. स्त्रियों के अंग उपांग नहीं देखना। ४. स्त्री, पशु और नपुंसक वाले स्थान में नहीं ठहरना। ५. स्त्रीविषयक चर्चा नहीं करना।
पंचम अपरिग्रह महाव्रत की ५ भावनाएँ
(१-५) पाँचों इन्द्रियों के विषय शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श के इन्द्रिय-गोचर होने पर मनोज्ञ पर रागभाव तथा अमनोज्ञ पर द्वेषभाव न लाकर उदासीन भाव रखना। दशाश्रुत आदि सूत्रत्रयी के २६ उद्देशन काल
__दशाश्रुत स्कन्ध सूत्र के दश उद्देश, बृहत्कल्प के छह उद्देश, और व्यवहार सूत्र के दश उद्देश-इस प्रकार सूत्रत्रयी के छब्बीस उद्देश होते हैं । जिस श्रुतस्कन्ध या अध्ययन के जितने उद्देश होते हैं उतने ही वहाँ उद्देशनकाल अर्थात् श्रृतोपचाररूप उद्देशावसर होते हैं। एक दिन में जितने श्रुत की वाचना (अध्यापन) दी जाती है, उसे 'एक उद्देशन काल' कहा जाता है। सत्ताईस अनगार के गुण
(१-५) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच महाव्रतों का सम्यक् पालन करना (६) रात्रि भोजन का त्याग करना (७-११) पाँचों इन्द्रियों को वश में रखना (११) भाव सत्य-अन्त: करण की शुद्धि (१३) करण सत्य वस्त्र पात्र आदि की भली-भाँति प्रतिलेखना करना (१४) क्षमा (१५) विरागता= लोभ-निग्रह (१६) मन की शुभ प्रवृत्ति (१७) वचन की शुभ प्रवृत्ति (१८) काय की शुभ प्रवृत्ति (१९-२४) छह काय के जीवों की रक्षा (२५) संयम-योगयुक्तता (२६) वेदनाऽभिसहन तितिक्षा अर्थात् शीत आदि से सम्बन्धित कष्ट-सहिष्णुता (२७) मारणान्तिकाऽभिसहन मारणान्तिक कष्ट को भी समभाव से सहना । उक्त गुण आचार्य हरिभद्र ने आवश्यक सूत्र की शिष्यहिता वृत्ति में बताए हैं। समवायांग सूत्र में कुछ भिन्नता है। अट्ठाईस आचार प्रकल्प
(१) शस्त्रपरिज्ञा (२) लोकविजय(३) शीतोष्णीय (४) सम्यक्त्व (५) आवंतीलोकसार (६) धुताध्ययन (७) महापरिज्ञा (८) विमोक्ष (९) उपधानश्रुत (१०) पिण्डैषणा (११) शय्या (१२) ईर्या (१३) भाषा (१४) वस्त्रैषणा (१५) पात्रैषणा (१६) अवग्रह प्रतिमा (१६+ ७ = २३) सप्त स्थानादि सप्तसप्तिका (२४) भावना (२५) विमुक्ति (२६) उद्घात (२७) अनुद्घात (२८) और आरोपणा । प्रथम के २५ अध्ययन आचारांग सूत्र के हैं, तथा उद्घातादि तीन अध्ययन निशीथ सूत्र के हैं।
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