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________________ ४६२ उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण तेरह क्रियास्थान १. अर्थक्रिया अपने किसी अर्थ—प्रयोजन के लिए बस स्थावर जीवों की हिंसा करना, कराना तथा अनुमोदन करना। ‘अर्थाय क्रिया अर्थ क्रिया।' २. अनर्थ क्रिया-बिना किसी प्रयोजन के किया जाने वाला पाप कर्म अनर्थ क्रिया कहलाता है। व्यर्थ ही किसी को सताना, पीड़ा देना। ३. हिंसा क्रिया-अमुक व्यक्ति मुझे अथवा मेरे स्नेहियों को कष्ट देता है, देगा अथवा दिया है—यह सोचकर किसी प्राणी की हिंसा करना, हिंसा क्रिया है। ४. अकस्मात् क्रिया-शीघ्रतावश बिना जाने हो जाने वाला पाप, अकस्मात् क्रिया कहलाता है। बाणादि से अन्य की हत्या करते हुए अचानक ही अन्य किसी की हत्या हो जाना। ५. दृष्टि विपर्यास क्रिया मतिभ्रम से होने वाला पाप । चौरादि के भ्रम में साधारण निरपराध व्यक्ति को दण्ड देना। ६. मृषा क्रिया-झूठ बोलना। ७. अदत्तादान क्रिया-चोरी करना। ८. अध्यात्म क्रिया-बाह्य निमित्त के बिना मन में होने वाला शोक आदि का दुर्भाव। ९. मान क्रिया-अपनी प्रशंसा करना, घमण्ड करना। १०. मित्र क्रिया प्रियजनों को कठोर दण्ड देना आदि । ११. माया क्रिया-दम्भ करना। १२. लोभ क्रिया-लोभ करना। १३. ईर्यापथिकी क्रिया-अप्रमत्त विवेकी संयमी को भी गमनागमन आदि से लगने वाली अल्पकालिक क्रिया। चौदह भूतप्राम-जीवसमूह सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिंद्रिय, असंज्ञी पञ्चेंद्रिय और संज्ञी पञ्चेंद्रिय। इन सातों के पर्याप्त और अपर्याप्त-कुल चौदह भेद होते हैं। इनकी विराधना करना, किसी भी प्रकार की पीड़ा देना वर्जित है। पंदरह परमाधार्मिक १. अम्ब २. अम्बरीष ३. श्याम ४. शबल ५. रौद्र ६. उपरौद्र ७. काल ८. महाकाल ९. असिपत्र १०. धनुः ११. कुम्भ १२. वालुक । १३. वैतरणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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