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३१ - अध्ययन
बारह भिक्षु प्रतिमाएँ
१. प्रथम प्रतिमाधारी भिक्षु को एक दत्ति अन्न और एक दत्ति पानी की लेना कल्पता है । साधु के पात्र में दाता द्वारा दिए जाने वाले अन्न और जल की धारा जब तक अखण्ड बनी रहे, उसका नाम दत्ति है । धारा खण्डित होने पर दत्ति की समाप्ति हो जाती है । जहाँ एक व्यक्ति के लिए भोजन बना हो वहीं से लेना चाहिए । किन्तु जहाँ दो तीन आदि अधिक व्यक्तियों के लिए भोजन बना हो, वहाँ से नहीं लेना । इसका समय एक महीना है ।
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२ – ७. दूसरी प्रतिमा भी एक मास की है। दो दत्ति आहार की, दो दत्ति पानी की लेना । इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठी और सातवीं प्रतिमाओं में क्रमशः तीन, चार, पाँच, छह और सात दत्ति अन्न की और उतनी ही पानी की ग्रहण की जाती हैं । प्रत्येक प्रतिमा का समय एक-एक मास है । केवल दत्तियों की वृद्धि के कारण ही ये क्रमशः द्विमासिकी, त्रिमासिकी, चतुर्मासिकी, पञ्चमासिकी, षाण्मासिकी और सप्तमासिकी कहलाती हैं ।
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८. यह आठवीं प्रतिमा सप्तरात्रि = सात दिन रात की होती है । इसमें एकान्तर चौविहार उपवास करना होता है । गाँव के बाहर उत्तानासन (आकाश की ओर मुँह करके सीधा लेटना), पार्श्वासन ( एक करवट से लेटना) अथवा निषद्यासन (पैरों को बराबर करके खड़ा होना या बैठना) से ध्यान लगाना चाहिए ।
९. यह प्रतिमा भी सप्तरात्रि की होती है । इसमें चौविहार बेले - बेले पारणा किया जाता है । गाँव के बाहर एकान्त स्थान में दण्डासन, लगुडासन अथवा उत्कटुकासन से ध्यान किया जाता है ।
१०. यह भी सप्तरात्रि की होती है। इसमें चौविहार तेले - तेले पारणा किया जाता है । गाँव के बाहर गोदोहन- आसन, वीरासन, अथवा आम्रकुब्जासन से ध्यान किया जाता है ।
११. यह प्रतिमा अहोरात्र की होती है । एक दिन और एक रात अर्थात् आठ प्रहर तक इसकी साधना की जाती है। चौविहार बेले के द्वारा इसकी आराधना होती है। नगर के बाहर दोनों हाथों को घुटनों की ओर लम्बा करके दण्डायमान रूप में खड़े होकर कायोत्सर्ग किया जाता है ।
१२. यह प्रतिमा एक रात्रि की है । अर्थात् इसका समय केवल एक रात है । इसका आराधन बेले को बढ़ाकर चौविहार तेला करके किया जाता है । गाँव के बाहर खड़े होकर मस्तक को थोड़ा-सा झुकाकर किसी एक पुद्गल पर दृष्टि रखकर, निर्निमेष नेत्रों से निश्चलतापूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता है । उपसर्गों के आने पर उन्हें समभाव से सहन किया जाता है ।
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