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________________ ३१-अध्ययन ४५७ (२) मैं दूसरे साधुओं के लिए स्थान की याचना करूँगा। दूसरे के द्वारा याचित स्थान में रहूँगा। यह गच्छान्तर्गत साधुओं के होती है। __(३) मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना करूँगा, किन्तु दूसरों के द्वारा याचित स्थान में नहीं रहूँगा। यह यथालन्दिक साधुओं के होती है। (४) मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना नहीं करूँगा, परन्तु दूसरों के द्वारा याचित स्थान में रहूँगा। यह जिन कल्प दशा का अभ्यास करने वाले साधुओं के होती है। (५) मैं अपने लिए स्थान की याचना करूँगा, दूसरों के लिए नहीं। यह जिन कल्पिक साधुओं के होती है। (६) जिसका मैं स्थान ग्रहण करूँगा, उसी के यहाँ पलाल आदि का संस्तारक प्राप्त होगा तो लूँगा, अन्यथा उकडू या नषेधिक आसन से बैठे हुए ही सारी रात गुजार दूंगा, यह जिनकल्पिक या अभिग्रहधारी साधुओं के होती है (७) जिसका स्थान मैं ग्रहण करूँगा उसी के यहाँ ही सहज भाव से पहले के शिलापट्ट या काष्ठपट्ट प्राप्त होगा तो लूँगा, अन्यथा उकडू या नैषधिक आसन से बैठे-बैठे रात बिताऊँगा। यह भी जिनकल्पिक या अभिग्रहधारी साधुओं के होती है। सात भय१. इहलोक भय-अपनी ही जाति के प्राणी से डरना, इहलोक भय है। जैसे मनुष्य का मनुष्य से, तिर्यंच का तिर्यच आदि से डरना। २. परलोक भय–दूसरी जाति वाले प्राणी से डरना, परलोक भय है। जैसे मनुष्य का देव से या तिर्यञ्च आदि से डरना। ३. आदान भय-अपनी वस्तु की रक्षा के लिए चोर आदि से डरना । ४. अकस्मात् भय—किसी बाह्य निमित्त के बिना अपने आप ही सशंक होकर रात्रि आदि में अचानक डरने लगना। आजीव भय–दुर्भिक्ष आदि में जीवन-यात्रा के लिए भोजन आदि की अप्राप्ति के दुर्विकल्प से डरना। ६. मरण भय-मृत्यु से डरना । ७. अश्लोक भय-अपयश की आशंका से डरना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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